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________________ 98 हेतु कहा गया है। विषयासक्त व्यक्ति की कामनाओं की पूर्ति न होने से उसका मन अनेक प्रकार के मानसिक संक्लेशों से असमाधिस्थ हो जाता है। जैसे इष्ट विषय के अप्राप्त होने पर या उसके वियोग हो जाने पर वह खिन्न और क्रोधित होता है। पीड़ित होकर आंसू बहाता है। वह बाहर और भीतर में कायिक, वाचिक और मानसिक इन तीनों प्रकार से ताप का अनुभव करता है। इसी ग्रंथ में आगे कहा गया है कि स्वजन आदि के संसर्ग से बद्ध तथा इंद्रिय विषयों की आसक्ति में निमग्न मनुष्य काम जनित अशांति का अनुभव करता है। " ठाणं सूत्र में भी मैथुन अविरमण रूप अब्रह्मचर्य को असमाधि का एक प्रकार माना गया है। 99 100 2.2 (5) दुर्ध्यान - ध्यान के चार भेदों में आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान अप्रशस्त ध्यान हैं। इन्हें दुर्ध्यान भी कहते हैं। ठाणं सूत्र में काम-विषयों को आर्त्तध्यान और रौद्र ध्यान का हेतु कहा गया है। 101 102 2.2 (6) धृष्टता - उत्तराध्ययन सूत्र में काम भोग में आसक्ति के कारण मनुष्य का धृष्ट होना बताया गया है। उदाहरण देते हुए सूत्रकार कहते हैं कि धृष्ट व्यक्ति प्रेरणा देने पर भी नहीं मानता और इस प्रकार के कुतर्क प्रस्तुत करता है - 'मैं लोक समुदाय के साथ रहूँगा, जो गति उनकी होगी, वह मेरी भी हो जाएगी।' फलत: वह अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक उत्ताप से उत्तप्त रहता है। 2.2 (7) पश्चात्ताप काम पूर्ति के लिए मनुष्य परिवार जन के लिए अनेक प्रकार के आरंभ समारंभ करता है। किंतु अर्जित कर्मों का जब उदयकाल आता है तो कोई सहारा नहीं मिलता। मनुष्य के हाथ केवल पश्चात्ताप ही लगता है सूत्रकृतांग सूत्र में सूत्रकार ने इसका सुंदर चित्र खींचा है मया परिजनस्यार्थे कृतं कर्म सुदारुणम्। एकाकी तेनदयेऽहं गतास्ते फल भोगिनः || मैंने अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए कठोर कर्म अर्जित किए हैं। अब मैं अकेला ही उन कर्मों का परिणाम भोग रहा हूँ। परिणाम भोगने के समय वे कुटुंबी कहीं भाग गए। वे मेरा हिस्सा नहीं बंटा रहे हैं। 103 दसवैकालिक सूत्र में ब्रह्मचर्य को छोड़कर अब्रह्मचर्य के मार्ग को अपनाने का फल पश्चात्ताप बताया है। 104 2. 2 ( 8 ) विषाद ग्रस्तता विषाद का अर्थ है संयम और धर्म के प्रति अरुचि की भावना उत्पन्न होना। दसवैकालिक सूत्र के व्याख्या साहित्य में कहा गया है कि इच्छाओं के वश होने वाला व्यक्ति बात-बात में शिथिल और कायर होकर विषाद ग्रस्त हो जाता है। 105 - 94
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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