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गया है।
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संबोधि में आचार्य महाप्रज्ञ ने विषयों की कामना को ही दुःख का कारण बताया है। वे
कामानुगृद्धि प्रभवं हि दुःखं, सर्वस्य लोकस्य सदैवतस्य ।
यत् कायिक मानसिकंच किंचित्तस्यान्तमाप्नोति च वीतरागः । ।
इसके अतिरिक्त संबोधि के सूत्रकार आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं कि भोग में आसक्त रहने वाला व्यक्ति कर्तव्य और अकर्तव्य के बारे में सोच नहीं पाता। कर्तव्य और अकर्तव्य को नहीं
कहते हैं
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जानने वाला व्यक्ति अंत में दुःख को पाता है।
2.1(9) तनाव - आचार्य महाप्रज्ञ ने तनाव का एक प्रमुख कारण काम को माना है। उनके अनुसार इस दृश्य शरीर के मुख्य दो केंद्र हैं- ज्ञान केंद्र और काम केंद्र । नाभि से ऊपर मस्तिष्क तक का स्थान ज्ञान केंद्र है और नाभि से नीचे का स्थान काम केंद्र है। हमारी चेतना इन दो वृत्तियों के आसपास उलझी रहती है। जहां चेतना की सघनता ज्यादा होती है वहां चेतना का प्रवाह भी अधिक हो जाता है। चेतना के काम केंद्र तक ही सिमटे रहने से काम जन्य तनाव बहुत बढ़ जाते हैं। भय, क्रोध, ईर्ष्या, मान तथा अन्य कारणों से होने वाला तनाव कभी-कभी होता है किंतु काम जन्य तनाव निरंतर बना रहता है। यह तनाव अनेक समस्याओं को जन्म देता है। 2. 2. मानसिक हानियां
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कामासक्ति की उत्पत्ति शरीर से पहले मन में होती है यह मानसिक स्वास्थ्य पर भी अपना प्रभाव डालती है। कामासक्त व्यक्ति अनेक प्रकार की मानसिक मजबूरियों से ग्रस्त रहता है
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2.2 (1) परवशता आचारांग में कामासक्त व्यक्तियों के स्त्रियों के वशवर्ती होने के संकेत हैं। सूत्रकृतांग में काम भोग के लिए भ्रष्ट हुए मनुष्यों की दुर्दशा का विस्तृत एवं दारुण वर्णन किया गया है। स्त्रियां उसे अनेक प्रकार की वस्तुएं लाने को मजबूर तो करती ही हैं। दास और पशु की तरह काम भी करवाती हैं। चाहते हुए भी मनुष्य उससे मुक्त नहीं हो सकता। " उत्तराध्ययन सूत्र में इसी को आगे बढ़ाते हुए कहा गया है कि स्त्रियां कामासक्त व्यक्ति को प्रलोभन में डालकर उसे दास की भांति नचाती हैं। "कामासक्त व्यक्ति अपनी विवशता को समझता हुआ भी उनके चंगुल से निकल नहीं पाता।
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संघदास गणि विरचित व्यवहार भाष्य में कथानक के माध्यम से बताया गया है कि कामासक्ति के कारण राजा, पुरोहित आदि उच्च पदस्थ व्यक्ति भी स्त्रियों के वश में हो जाते हैं और अत्यंत घृणित कार्य करने को बाध्य हो जाते हैं।
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भगवती आराधना में विषयासक्त मनुष्य की परवशता का विस्तार से वर्णन किया गया
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