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________________ सिद्धिदायक रेवतगिरि सोरठ देश के सुग्रामपुर गाँव में पूर्व कर्मों के तीव्र उदय के कारण अनेक दोषों के भंडार स्वरूप एक क्षत्रिय रहता था। कोई भी प्रकार के व्रत नियम बिना उसका जीवन स्वच्छंदता और स्वतंत्रता की पराकाष्ठा पर पहुंचा था। उसके दिल में जीवमात्र के प्रति करुणा न होने के कारण वह अनेक जीवों की निर्दयता से हत्या करता था । राजा हरिश्चन्द्र का कट्टर दुश्मन हो उस तरह उसे सत्य के साथ महाभयंकर वैर होने के कारण वह हमेशा कूड-कपट और मिथ्यावचनों को बोलता । अनेक प्रकार के दोषों से भरा हुआ वह मार्ग के पथिकों को पीडा पहुंचाकर आनंदित होता था । इस तरह हत्या और महापापकारी प्रवृत्ति के महापापोदय के कारण उसका शरीर लून नामक रोग से व्याप्त हो गया । इस महारोग की अत्यन्त भयङ्कर पीडा को सहन करता हुआ वह एक गांव से दूसरे गांव, एक नगर से दूसरे नगर में दीन बनकर भटक रहा था । पूर्वभव के कोई प्रचंड पुण्योदय से एक जैनमुनि का संपर्क हुआ, उन्हें अपनी दुःखभरी कहानी सुनाकर वह आत्मसमाधि के उपाय की मांग करता हुआ मुनिभगवंत के समक्ष झोली फैलाता है। निष्कारण बंधु मुनिवर श्री रैवतगिरि महातीर्थ के माहात्म्य का अद्भुत वर्णन करते हैं। वह तीर्थ के प्रभाव का अनुभव प्राप्त करने के लिए रैवताचल महातीर्थ की यात्रा के लिए प्रयाण करता है। थोडे ही समय में वह रैवतगिरि के पास पहुंचकर गिरि आरोहण करता है। वहाँ पर श्री नेमिप्रभु के दर्शन से नेत्रों को पावन करके खूब भावपूर्वक प्रभु की पूजा-भक्ति तथा उज्जयन्ती नदी के निर्मल जल से स्नान करता है। द्रव्य और भाव सर्व रोगों का नाश होते ही वह समाधिपूर्वक मृत्यु पाकर सूर्यमंडल समान देहकांतिवाला, दशों दिशाओं को प्रकाशित करनेवाला अद्भूत रूपवान देव बनता है। दैवीसुख के उपभोग में पूर्वभव को भूलचुके उस देव को अचानक परमात्मा और तीर्थ के परम उपकार का स्मरण होता है। पूर्वभव में भरत चक्रवर्ती के द्वारा निर्मित नेमिप्रसाद में पूजाभक्ति करने से पापों की परम्परा का नाश होता है और रैवतगिरि महातीर्थ के प्रचंडप्रभाव से दिव्यकांतिवाला देव बनता है। उन उपकारों का अंशात्मक ऋण चुकाने की भावना से वह पुन: रैवतगिरि की स्पर्शना-भक्ति करने जाता है, और जिनालय का निर्माण करता है । जिसके अचिन्त्य प्रभाव से मुझे इस सिद्धि की प्राप्ति हुई है उसका यदि मैं आश्रय न करु तो स्वामीद्रोह के भयंकर पाप के परिणाम स्वरूप दुर्गति में पतन होगा। इस तीर्थ की और परमात्मा की भक्ति से मुझे आगामी भव में आनंददायक केवलज्ञान और परमपद की प्राप्ति होगी, इसीलिए इस तीर्थ को ही मैं अपना आश्रय स्थान बनाऊँ, ऐसा विचार करके वह रैवतगिरि तीर्थ में सिद्धिविनायक नामक अधिष्ठायक बनकर श्री नेमिनाथ परमात्मा के भक्तजनों के सभी वांछित कार्यों को पूर्ण करने के लिए सज्ज बन जाता है। ४९
SR No.009951
Book TitleChalo Girnar Chale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size450 KB
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