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अशोकचन्द्र
जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में चंपापुरी नामक छोटीसी परंतु अत्यंत मनोहर नगरी में पूर्वकृत अशुभकर्मों के तीव्रोदय से दीर्घकालीन दरिद्रता के दर्द से शोकातुर ऐसा अशोकचन्द्र नामक क्षत्रिय पुरुष रहता था । निर्धनता की करुण व्यथा से अत्यंत थका हुआ वह सतत उद्वेग अनुभव करता हुआ गृह त्यागकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटक रहा था ।
अनादिकाल के अशुभकर्म के घनघोर बादलो के अंधकार को भेदनेवाले तेजस्वी प्रकाश का जैसे आगमन हो रहा हो, वैसे ही मार्ग में तप के ताप से तपायी हुई, कंचनवर्णी काया को धारण किए हुए एक मुनिवर का मिलन हुआ । महात्मा के दर्शन होते ही अशोकचन्द्र हाथ जोड़कर नमस्कार करके उन महात्मा को बहुत ही नम्रभाव से अपनी दरिद्रता को नाश करने का उपाय पूछता है । तब महात्मा कहते हैं कि 'हे वत्स ! शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा इस भवसंसार में भ्रमण करने के लिए असमर्थ होते हुए भी पूर्वजन्म में उपार्जित किए हुए प्रबल कर्मों के आधीन बनी हुई आत्मा सुखदुःख का अनुभव करती है। उसी तरह तेरे पूर्वभवों के किए हुए दुष्कृतों के फलस्वरूप ही तेरी यह दरिद्रता ज्ञात होती है। इसलिए अन्य सैंकडो उपायों को छोड़कर एकमात्र रैवतगिरि महातीर्थ की सेवाभक्ति करने में आए तो अत्यंत अल्पकाल में अनेक भवों के अशुभकर्मों का चूरा हो जाता है।
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महासंयमी के सुधारस का आस्वादन करके तृप्त बना हुआ अशोकचन्द्र रैवतगिरि महातीर्थ की ओर प्रयाण करता है। महातीर्थ के दर्शन के मनोरथ के साथ एक-एक कदम पर अनेक जन्मों के अशुभ कर्मों का क्षय करते हुए अशोकचन्द्र महातीर्थ के परमसान्निध्य में आता है।
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" रैवतगिरि समरुं सदा, सोरठ देश मोझार मानवभव पामी करी, ध्यावुं वारंवार........ आ तीर्थपर जे भावथी, अल्प पण धर्मने करे, आ लोकथी परलोक वली, परमलोकने ते वरे, जे तीर्थनी सेवा थकी, फेरा जन्मोना टले, ओ गिरनारने वंदतां, पापों बधा दूरे जता.....'
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