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________________ विद्याधर के शब्दों से महाराजा भीमसेन को याद आया कि, "अहो ! धिक्कार है मुझे ! जिस रैवतगिरि महातीर्थ के अचिन्त्य प्रभाव से मैं आज इतने सुखों का स्वामी बना हूँ, उसको मैं याद भी नही करता । दुबारा उस महातीर्थ की यात्रा करने का विचार भी नहीं किया" । उपकारी के उपकार का विस्मरण होने की भूल के एहसास से शोकमग्न भीमसेन राजा वैराग्य पाता है। अपने राज्य का संपूर्ण भार अपने छोटे भाई जयसेन को सौंप देता है, और थोड़े सेवकों के साथ रैवतगिरि की तरफ प्रयाण करता है। सबसे पहले सिद्धगिरि महातीर्थ पर युगादिजिन की पूजा-भक्ति के साथ अट्ठाई महोत्सव करके रैवतगिरि तीर्थ पर जाता है। वहाँ कपुर, केसर, चंदन, नंदनवन में खिले हुए विविध फुलों से श्री नेमिनाथ परमात्मा की पूजा-भक्ति करता है। विविध उत्सवपूर्वक परमात्मा की भक्ति करता है। अनुक्रम से दान, शील, तप, भावरूपी चर्तुविध धर्म की उत्कृष्ट आराधना करता थोडे समय के पश्चात् ज्ञानचंद्र मुनि के आगमन से, उनकी सुमधुर धर्मवाणी के श्रवण से, संसार के प्रति विरक्त चित्तवाला राजा भीमसेन दीक्षा ग्रहण करता है। संयमधर्म की साधना में मग्न हुए राजर्षि भीमसेन ज्ञानशिला में दुष्कर तप की आराधना करते हैं। पूर्वकाल में किये हुए पापकर्म को तप की अग्नि द्वारा नष्ट किया । ऐसे राजा भीमसेन को इस रैवतगिरि महातीर्थ के प्रचंड प्रभाव से आठवें दिन केवलज्ञान प्राप्त होता है और थोडे समय में आयुष्य पूरा करके शिवपद के स्वामी बनते हैं। __ इस महातीर्थ के प्रभाव से महापापी, महादुष्ट ऐसे कुष्ठरोगी भी मोक्षपद के स्वामी बनते हैं। इस तीर्थ पर किये हुए थोडे से दान का भी खब फल है। वह दान अतिवृद्धि प्राप्त करके मुक्तिरूपी स्त्री के साथ संगम कराता है। इस तरह इस तीर्थ पर अनेक मुनिवरों ने अपने अशुभ कर्मों को नष्ट कर शाश्वत-पद को प्राप्त किया है। ४५
SR No.009951
Book TitleChalo Girnar Chale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size450 KB
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