SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के लोग भी भीमसेन को पहचान जाते हैं। प्रदक्षिणा की विधि पूरी होते ही जयसेन राजा भावविभोर होकर आनंद से भीमसेन के गले लगते हैं। आनंदाश्रु से भरी आँखोंवाले जयसेन राजा विनम्रता से कहते है कि, "ओ ! बडे भाई ! ऐसी कोई जगह बाकी नहीं रही, जहा मैंने आपको ढूढा न हो। आपकी खोज में गाव-गाव अनेक सेवकों को महीनो तक दौडाया फिर भी आपका कोई पता नहीं चला । भाई ! इतने सालों तक आप कहाँ रह गये थे? पधारिये । इतने वर्षों से अमानत की तरह संभाले हुए इस राज्य का स्वीकार करें। छोटे भाइ के अतिआग्रह बश होकर, भीमसेन भी उनके हृदय की भावनाओं को समझकर, मंत्रीगण सहित स्वराज्य को अपनाने की संमति देता है । हृदय में उछलती हुई आनंद की लहरों के साथ महाराजा भीमसेन, जयसेन, मंत्रीगण और प्रजा इस महातीर्थ की पूजा स्नात्रादि विधि संपन्न कर अपने राज्य की तरफ प्रयाण करते हैं। __ मार्ग में अनेक राजाओं से पूजित, अपने बड़े भाई भीमसेन को, जयसेन द्वारा बहुत ही ठाठमाठ से महोत्सवपूर्वक प्रवेश कराया गया । संपूर्ण नगरजनों के हृदय में आज आनंद समा नहीं रहा था । सब लोग नगर के रास्तो पर रंगोली, नृत्य-गीत आदि अनेक प्रकार से, नूतन महाराज को बधाई देने के लिए इकट्ठे हुए थे। महाराजा भीमसेन पहले के सर्व व्यसनादि कुलक्षणों से मुक्त बनकर, राज्य के सुव्यवस्थित कार्यभार के लिए अपने छोटे भाई जयसेन को युवराज पद पर, परदेशी मित्र को कोशाधिपति पद पर स्थापित करता है। मंत्रीमंडल के सहयोग से पिताजी की तरह न्याय पूर्वक प्रजा का पालन करने में तत्पर रहता था। महाराजा भीमसेन के राजगद्दी पर बिराजमान होने के बाद उनके राज्य में ना कोई चोर का डर रहा, ना कोई प्रजा की तकलीफ रही, ना कोई अतिवृष्टि, ना कोई अनावृष्टि, ना स्वशत्रुसैन्य की तकलीफ, ना कोई अकाल-अशिवादि उपद्रव रहा । पूर्व अवस्था में आवेश में की हुई माता-पिता की हत्या का पाप उसको चुभ रहा था । इस कारण से उसे भविष्य की चिंता होती थी। इसलिए किये गए पापो से मुक्ति पाने के लिए गाँव-गाँव, जगह-जगह जिनेश्वर परमात्मा के जिनालयों का निर्माण करने का संकल्प किया। पृथ्वीतल की भूमि को जिनालयों से सुशोभित करने का प्रयास किया । देवगुरु तथा साधर्मिक भक्ति में परायण, दीन बंधुओं के प्रति दयाल, परोपकार व्यसनी ऐसा भीमसेन राजा धर्म-अर्थ-काम को अबाधक बनकर अच्छी तरह से राज्य का पालन करने लगा। समय बीतता गया। उसमें एक दिन जिनेश्वर परमात्मा की भक्ति में तत्पर ऐसे एक विद्याधर को अपने बगीचे में आया हुआ देखकर राजा भीमसेन ने पूछा कि, "हे भद्रपुरुष ! आप कहाँ से आये हैं ? विद्याधर कहता है. "महाराज ! तीर्थाधिराज श्री शत्रुजयगिरि तथा महाप्रभावक उज्जयंत महागिरि की यात्रा करके मैं यहाँ जिनेश्वर परमात्मा की भक्ति करने आया हूँ । ४४
SR No.009951
Book TitleChalo Girnar Chale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size450 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy