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________________ हए आगे बढ़ते हैं। वहा मार्ग में एक मुनि भगवंत मिलते हैं। उनके दर्शन से हृदय में आनंद की एक लहर उमडी। नमस्कार करके दीनतापूर्वक अपने सब दुखों की कहानी बताते हुए भीमसेन कहता है कि, "स्वामि ! दुर्भाग्य और दरिद्रता में शिरोमणि, सर्व लोगों की निंदा के पात्र, सर्वत्र अनादर और तिरस्कार के दुःखों से दुःखी ऐसे हमें, इस दुःखनाश का कोई उपाय बताने की कृपा करें । अन्यथा पर्वत पर से कूदकर मौत को गले लगायें, यही श्रेष्ठ उपाय है जो हमें दिख रहा है। करुणा के सागर, दया के भंडार ऐसे मुनिवर ने उनको सांत्वना देते हुए कहा कि, 'ओ ! युवानो ! आप लोगों ने पूर्वभव में कुछ धर्म की आराधना की ही नहीं थी, इसलिए इतने दुःखी दिख रहे हो । शास्त्र में कहा है कि कले जन्म य नैरुज्यं सौभाग्यं सुखमद्धतम् । लक्ष्मीरायुर्यशो विद्या हृदयारामस्तु रंगमाः ॥१॥ मातंगा जनलक्षैस्तु परिचर्या तथार्यता । चक्रिशक्रेश्वरत्वं च धर्मादेव हि देहिनाम् ॥२॥ जीवों को अच्छे कुल में जन्म, निरोगी शरीर, सौभाग्य, अद्भुत सुख, लक्ष्मी, दीर्घायुष्य, यश, विद्या, सुख संपत्ति, हाथी, घोडे और लाखों लोगों द्वारा सेवा, आर्यत्व, चक्रीत्व तथा इंद्रत्व धर्म से ही प्राप्त होते हैं। इसलिए हे भीमसेन ! अनर्थ की परंपराजनक आर्त ध्यान मत कर । तेरे द्वारा पूर्वभव में अठारह मिनट तक मुनि को पीड़ा दी गई थी। सज्जन पुरुषों को मुनिभगवंत की बाह्य-अभ्यंतर सेवा भक्ति द्वारा आराधना करनी चाहिये । विराधना होनी नहीं चाहिये । आराधना करने से कष्टनाश होते हैं और विराधना करने से कष्ट प्राप्त होते हैं। उसके प्रताप से आज तक इतने वर्षों से तू सतत दुःखी हो रहा था । अब रैवतगिरि महातीर्थ की सेवा-भक्ति करने से तेरे सब-शेष कर्म भी नाश हो जायेंगे और तू सर्व संपत्ति का स्वामी बनेगा । समग्र पृथ्वी को जिनालयों से सुशोभित करके अंत में मुक्तिपद प्राप्त करेगा । इसलिए तू जरा भी चिंता किये बगैर श्रद्धा-भक्ति और भावोल्लास के साथ रैवतगिरि की तरफ प्रयाण कर ।" मुनिभगवंत के ऐसे अमृतवचनों को सुनकर भीमसेन उत्साहपूर्वक रैवतगिरि महातीर्थ की ओर बढा । वहाँ घोर तपश्चर्या करता है, शरीर का मोह छोड़ देता है। रैवतगिरि के प्रचंड प्रभाव का पहला अनुभव करता हुआ भीमसेन, संघ के साथ संघपति बनकर आये हुए, अपने छोटे भाई जयसेन राजा को, जिनालय में प्रदक्षिणा देते हुए देखता है। महाराज, राजमंत्री तथा राज्य ४३
SR No.009951
Book TitleChalo Girnar Chale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size450 KB
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