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में रहे हुए शुद्ध अन्न पानी आदि भोजन के द्वारा स्वयं को लाभ प्राप्त हो, ऐसे लक्ष्य के साथ मुनि भगवंतो को भाव-भरी विनंति करती है। शास्त्राभ्यास में प्रवीण ऐसे महात्मा भी बहुत शोध करके, स्वयं प्रायोग्य ऐसे भोजनादि- द्रव्य और भाव उभय से शुद्ध जानकर, ४२ दोष रहित भिक्षा को ग्रहण कर धर्मलाभ पूर्वक आशिष देकर स्वस्थान पर लौटे। अंबिका के हृदय में सुपात्रदान रूपी घंटनाद का रणकार चलता ही रहा और सतत स्वयं को प्राप्त लाभ की अनुमोदना करते करते अपार पुण्य राशि के संचय के द्वारा सुकृत के लाभ का गुणाकार कर रही थी।
अंबिका के हृदय के भाव आसमान को छू रहे थे तब पडोसन को मुनिदान के दृश्य से ईर्ष्या हुई। और अपना विकृत मुँह बनाकर साक्षात् राक्षसी की तरह स्वयं के घर से निकलकर दोनों हाथ उछालती हुई सभी पडोसियों के बीच अंबिका को उपालम्भ देने लगी, "हे स्वच्छंदचारिणी बहू ! तुम्हें धिक्कार हो ! यह तेरा कैसा विचित्र आचरण है ? आज इस श्राद्ध के दिन अभी तक तो पितृजन को पिंडदान भी करने में नहीं आया, देवताओं कोभी पिंडादि अर्पण नही किया है। ब्राह्मणों को भी भोजन नहीं कराया, उससे पहेले ही सिरमुंडे को दान देकर तुमने तो पूरा भोजन जूठा कर दिया ! सासु घर पर नहीं है इसीलिए तुम ऐसा स्वच्छंद वर्तन कर रही हो ? वैश्य कुलक योग्य तेरा यह आचरण बिलकुल भी योग्य नहीं है !" इस तरह पागल बनी पडोसन आवाज करते हुए उसके घर में घुसकर उसकी सासु को बुलाने लगी और अंबिका के द्वारा की गयी प्रवृत्ति में मीर्च- -मसाला मिलाकर, उसने दुराचरण किया है इस तरह बताकर उसकी सास को भी क्रोधातुर बना दिया। उसकी सासु भी सुनी सुनायी बातों पर विश्वास पर क्रोधांध बनकर अंबिका के उपर बरसने लगी ।
"अरे रे हीनकुलवाली ! दुराचारिणी ! मेरे जिंदा होते हुए भी तुम यह स्वच्छंद वर्तन क्यों कर रही हो ? मै तो अभी जीवीत हूँ, इस तरह तुम्हें दान देने के लिए सत्ता किसने सौंपी ?" इन कुवचनों से अंबिका को डाँटने लगी तब अंबिका अंदर से कांपने लगी । उस समय उसका पति सोमभट्ट भी ब्राह्मणें को बुलाकर अपने घर आया। तब वह माता और पडोसन के वचनो से क्रोधित बनकर अंबिका पर तिरस्कार की झडी बरसाने लगा। उस समय निरपराधी होते हुए भी, सभी के कठोर वचनों को सुनकर, मनमें अत्यन्त दुःखी होते हुए भी अंबिका मौन पूर्वक अपने पुत्र युगल को लेकर, गृह त्याग कर, रुदन करती हुई रास्ते पर विचार करती है कि
"अहो ! मैने अपने सास-ससुर के एक भी वचन का आज दिन तक उल्लंघन नहीं किया, नित्य पति की भक्ति में तत्पर रही, उभय कुल में चर्चास्पद बने ऐसा एक भी अप्रिय कार्य नहीं किया, अरे ! देह को दुःख देकर भी घर के सभी कार्य करती
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