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हूँ, फिर भी मुझ निरपराधी का जनसंपदा तिरस्कार करती है, अरे ! आज पर्व के पुण्य दिन में साधु युगल को निर्दोष भिक्ष दान कर उभय कुल को कल्याणकारी ऐसा कार्य करते हुए भी मिथ्यात्व से अंध बने, वे मुझे निरर्थक हैरान करते हैं। कैसा महामिथ्यात्व का उदय है! जिसके कारण ये लोग अतिशय सूखे हुए वृक्ष को जल सिंचन के द्वारा फलवत् बनाने के निरर्थक प्रयत्नों की तरह पुत्रों के द्वारा दिए गए पिंडादि के द्वारा मरे हुए प्राणियों को प्रसन्न करने के निरर्थक प्रयत्न करते हैं, जिस तरह उल्लू सूर्यप्रकाश को देखने में असमर्थ होने के कारण सूर्य की निन्दा करता है उसी तरह ये मिथ्यात्वी लोग अनंत पुण्य फल को देनेवाले सुपात्रदान की निन्दा करते हैं । अब मेरे लिए इस विषय पर विचार करना व्यर्थ है। मैने तो इस सुकृत द्वारा मेरे दान के फल को अच्छी तरह से गांठ बांधकर सुरक्षित कर लिया है। बस ! अब मैं उसकी अनुमोदना करूँ, गृहवास का त्याग कर भवसमुद्र में शरण करने योग्य उस मुनियुगल का शरण स्वीकार करती हूँ। अब मै रैवतगिरि पर जाकर इष्टदेव ऐसे जिनेश्वर परमात्मा का ध्यान कर, अपने अनंत भवों के अशुभकर्मों का नाश करने के लिए निरंतर तप करूँ," ऐसा विचार करते हुए स्वस्थ चित्तवाली बनकर अंबिका एक बालक को कमर में उठाकर, दूसरे को हाथ की अंगुली पकडाकर नेमिप्रभु का ध्यान करती हुई रैवताचल पर्वत की तरफ बढी ।
अनेक दुःखो से आकुल व्याकुल अंबिका नगर से बाहर थोडी दूर पहुँचती है, तब कमर में रहा हुआ विभुकट नामक छोटा बालक अस्पष्ट शब्दों द्वारा बोलता-बोलता रोने लगा। अतितृषा लगने से उस बालक के मुखकमल से लार और आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। वह पानी पानी कहकर आक्रन्द करने लगा। उसी समय अंगुली पकड़कर रहा हुआ दूसरा शुभंकर नामक बालक भूख से पीडित और मार्ग पर सतत चलने की थकावट के कारण बोलने लगा, "हे माता ! मुझे खाने को दो ! हे माता मुझे भोजन दो ! मुझे भूख लगी है !" मक्खन के पिंड जैसे सुकोमल बालकों की वेदना की चीख सुनकर अंबिका व्याकुल बन जाती है
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ग्रीष्म ऋतु के सूर्य के तेज से तपी हुई पृथ्वी पर भूख-प्यास आदि अनेक दुःखों से दुःखी बनी अंबिका विचार करती हैं कि "मुझे धिक्कार हो ! मैं अपने बच्चों की भूख-प्यास को शांत करने में असमर्थ हूँ । हे विधाता ! तुमने इस तरह मात्र दुःख से भरी हुई ऐसी, मेरा सर्जन क्यों किया ? हे धरती माता ! मुझे अवकाश दो! जिससे मैं उसमें प्रवेश कर अपने सर्व दुःखों का नाश करूँ, मेरे पूर्व भवों के विषम कर्मों का ही यह विपाक है, जिससे मुझ पर सभी दुःख एक साथ टूट पडे । खैर ! जो होना हो सो हो अब तो मैं इन दुःखों को अवश्य स्वीकार करूंगी। बस ! मात्र जिनेश्वर परमात्मा की शरण ही
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