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________________ श्री नेमिनाथ परमात्मा के शासन की अधिष्ठायिका अंबिकादेवी.की उत्पत्ति, सोरठ देश के शंगार स्वरूप रैवताचल पर्वत की दक्षिण दिशा में दाक्षिण्यता और न्याय से रक्षित बना हआ और समृद्धि में कुबेर समान मानवों से भरपूर ऐसा कुबेर नामक एक उत्तम नगर था । जहाँ आश्चर्य के अवलोकन से नगर जनों के नेत्ररूपी कमल विकसित हों, वैसे कमलवन थे। जहा शत्रुओं की श्रेणी को नाश करनेवाला ऊचा किल्ला था । जहा पाप का प्रलय करनेवाले मंदिर थे, और प्रत्येक चैत्य में अरिहंत परमात्मा की आश्चर्यदायक प्रतिमा की भक्ति के पुण्य प्रभाव से नगरजन लक्ष्मी संबंधी सुख को प्राप्त कर रहे थे। इन्द्र समान यशनामकर्म के उदय के गुणवाला, शत्रु रूपी गजेन्द्र को हराने में वनकेसरी, प्रयत्न किए बिना मनोवांछित दान कर्ता, यादववंश के रत्नरूप कृष्ण नामक राजा राज्य करता था । "इस जगत में रत्नत्रयी का आधार धर्म ही है।" यह बात बताने के लिए निशान रूप तीन सूत के धागे से सुशोभित अंगवाला, मुनि भगवंतो की वाणी के अमृतरस से सिंचन किए हुए बोधि वृक्षवाला, अद्भुत मनोहर विद्या को धारण करनेवाला देवभट्ट नामक ब्राह्मण था । उसकी देवल नामक धर्मपत्नी थी । उसे सोमभट्ट नामक पुत्र था । शैशव और कुमार अवस्थाओं को पार कर सोमभट्ट यौवनावस्था को प्राप्त हुआ, तब शील आदि अनेक गुणों के समूह से अलंकृत ऐसी साक्षात् लक्ष्मी समान अंबिका नामक कन्या के साथ उसकी शादी हुई। कालक्रम से देवभट्ट ब्राह्मण की मृत्यु के साथ-साथ मिथ्यात्व से कलुषित ऐसे उसके घर से जैन धर्म भी दूर हो गया। और वे निरंतर श्राद्ध के दिनों में कौए को पिंड देना, नित्य पीपल के वृक्ष की पूजा करनी आदि प्रवृत्ति करने लगे । अंबिका उनके साथ रहते हुए भी भद्रक परिणामी होने से जैन धर्म में दृढ थी। एक बार देवभट्ट ब्राह्मण के श्राद्ध का दिन होने से खीर आदि विविध भोजन रसोईघर में तैयार हुए। उस दिन दोपहर के समय शम और संवेग की साक्षात् मूर्ति समान मासोपवासी मुनियुगल भिक्षा के लिए उसके घर पधारे । तप और क्षमा से मानों सूर्य, चंद्र के जैसे न हों, ऐसे मुनि युगल को निहालकर हर्ष विभोर बनी हुई, प्रकृष्ट भक्तिभावना के कारण रोमांचित देहवाली अंबिका विचार करती है, "अहो ! आज इस पर्व के दिन अखिल विश्व को पवित्र बनाने में समर्थ ऐसे मुनि भगवंतों का मेरे घर आगन में पदार्पण होने के कारण मेरा पुण्य प्रकर्ष बना, मुनिदर्शन से नेत्र निर्मल बने, इस समय मेरे सासुजी भी घर में नहीं है और साधु भगवंत के प्रायोग्य निर्दोष भोजन भी तैयार है, तो इस सुवर्ण अवसर पर श्रमण भगवंतो को सुपात्र दान कर मेरे मनुष्य भव को सफल करूं।" इस तरह चिंतन करती हुई अंबिका स्वस्थान से उठकर भक्तिसभर हृदय से स्वयं के घर २६
SR No.009951
Book TitleChalo Girnar Chale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size450 KB
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