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है। "कर्णप्रासाद" नामक इस जिनालय से गिरनार की शोभा में वृद्धि हुई है, जो आपके पिताजी की स्मृति को अविस्मरणीय बनाने में समर्थ है। फिर भी आप स्वामी को, सोरठ की तीन साल की आमदनी राजभंडार में जमा करवानी हो, तो एक एक पाई के साथ रकम भंडार में जमा करने के लिए, नजदीक के वणथली गांव का श्रावक भीमा साथरिया, अकेला ही पूरी रकम भरने के लिए तैयार है और अगर जिर्णोद्धार का उत्कृष्ट लाभ लेकर आत्मभंडार में पुण्य जमा करवाना हो तो यह विकल्प भी आपके लिए खुला है।"
सज्जनमंत्री के इन शब्दों को सुनकर महाराज सिद्धराज सज्जनमंत्री पर बहुत खुश होते हैं और कहते हैं, "ऐसे मनोरम्य, सुंदर जिनालयों का महामुल्यवान लाभ मिलता हो तो मुझे उन तीन साल की रकम की कोई चिंता नहीं । मंत्रीवर ! आपने तो कमाल कर दिया । आपकी बुद्धि, कार्यपद्धति और वफादारी के लिए मेरे हृदय में बहुत गौरव हो रहा है। मंत्रीवर ! आपके लिए मुझे जो शंका-कुशंका हुई उस के लिए मैं क्षमा माँगता हूँ। आज मैं भी धन्य बन गया हैं।"
इस तरफ मंत्रीश्वर के समाचार की राह देख रहा भीमा साथरिया बेचैन है, कि अभी तक सज्जनमंत्री के कोई समाचार क्यों नही आये? क्या मेरे मुंह तक आया हुआ पुण्य का यह अमृत कलश युही चला जायेगा? सतत चिंतामग्न बने हुए भीमा की धीरज कम होने लगी है और अधीर बना हुआ भीमा जुनागढ़ की तरफ प्रयाण करता है। मंत्रीजी को जिर्णोद्धार के लिए रकम के समाचार नहीं भेजने का कारण पुछता है, सज्जन ने हकीकत बताई तो भीमा को बहूत आघात लगा, हाथ में आई हुई पुण्य की घड़ी ऐसे ही निकल जाने से वह दो क्षण के लिए अवाचक बन गया । पुनः स्वस्थ होते ही उसने कहा की, "मंत्रीश्वर ! जिर्णोद्धार दान के लिए रखी हुई रकम अब मेरे कुछ काम की नहीं, इसलिए आप इस द्रव्य को स्वीकार करके उसका योग्य उपयोग करे।
वंथली गाँव से भीमा साथरिया के धन की बैलगाडियाँ सज्जन मंत्री के आंगन में आकर खड़ी हुई । विचक्षण बुद्धि सज्जन ने इस रकम से "मेरकवशी" नामक जिनालय का और भीमा साथरिया की अविस्मरणीय स्मृति के लिए शिखर के जिनालय के समीप "भीमकुंड" नामक एक विशाल कुंड का निर्माण करवाया ।