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________________ कर, बाहर आकर रत्नश्रावक ने जब नवीन बिंब को अंदर ले जाने का प्रयास किया, तब वह प्रतिमा उसी स्थान पर मेरुपर्वत की तरह करोडों मनुष्यों से भी चलायमान न हो सके, उस तरह अचल बन गयी । इस अवसर पर रत्नश्रावक चिंतातुर होकर चारों ही आहारपानी का त्याग कर, पुनः अंबिकादेवी की आराधना में मग्न बन जाता है। निरंतर सात दिन के उपवास के अंत में अंबिकादेवी पुनः प्रगट होकर कहती है, "हे वत्स ! मैंने तो तुम्हे पहले ही कहा था कि मार्ग में कही पर भी विराम किए बिना इस बिंब को ले जाकर पधराना ! व्यर्थ प्रयास करने का कोई अर्थ नहीं। अब कोई भी हालत में यह प्रतिमा नहीं हटेगी। अब इस प्रतिमा को यथावत रखकर पश्चिमाभिमुख द्वारवाला प्रासाद बनवाओ ! अन्य तीर्थो में तो उद्धार करनेवाले दूसरे कई मिलेंगे, परन्तु हाल में इस तीर्थ के उद्धारक तुम ही हो इसीलिए इस कार्य में विलंब मत करो।" इस तरह सूचना कर अंबिकादेवी अंतर्धान हो गयी । रत्नश्रावक भी सूचनानुसार पश्चिमाभिमुख प्रासाद बनवाता है । सकल संघ के साथ हर्षोल्लास पूर्वक प्रतिष्ठा महोत्सव करवाता है, जिसमें आचार्यों के द्वारा सूरिमंत्र के पदों से आकर्षित बने हुए देवताओं ने उस बिंब और चैत्य को अधिष्ठायक युक्त बनाया । रत्नश्रावक अष्टकर्मनाशक अष्टप्रकारी पूजा कर, लोकोत्तर ऐसे जिनशासन की गगनचुंबी गरिमा को दर्शानेवाली महाध्वजा को लहराकर, उदारतापूर्वक दानादि विधि पूर्ण कर, भक्ति से नम्र बनकर, नेमिनाथ प्रभु के सन्मुख खडे रहकर स्तुति करता है। "हे अनंत ! जगन्नाथ ! अव्यक्त ! निरंजन ! चिदानंदमय ! और त्रैलोक्यतारक ऐसे स्वामी ! आप जय को प्राप्त हों, हे प्रभु ! जंगम और स्थावर देह में आप सदा शाश्वत हैं, अप्रच्युत और अनुत्पन्न हैं, और रोग से विवजित हैं । देवताओं से भी अचलित हैं, देव, दानव और मानव से पूजित हैं, अचिन्त्य महिमावंत हैं, उदार हैं, द्रव्य और भाव शत्रुओं के समूह को जीतनेवाले हैं, मस्तक पर तीन छत्र से शोभायमान, दोनों तरफ चामर से विझे जाते, और अष्टप्रातिहार्य की शोभा से उदार ऐसे, हे विश्व के आधार ! प्रभु ! आपको नमस्कार हो ! भावविभोर बनकर स्तुति करने के बाद रत्नश्रावक पंचांग प्रणिपात सहित भूतल को स्पर्श कर अत्यन्त रोमांचित होकर, साक्षात् श्री नेमिप्रभु को ही न देखता हो, उस तरह उस मूर्ति को प्रणाम करता है। उस समय उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर अंबिकादेवी क्षेत्रपालादि देवताओं के साथ वहाँ आती है और रत्नश्रावक के गले में पारिजात के फूलों की माला पहनाती है। बाद में रत्नश्रावक कृतार्थ होकर स्वजन्म को सफल मानकर सौराष्ट्र की भूमि को जिनप्रसादों से विभूषित कर सात क्षेत्रों मे संपत्ति स्वरूपबीज को बोनेवाला, वह परंपरा से मोक्षसुख का स्वामी बनेगा ।
SR No.009951
Book TitleChalo Girnar Chale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size450 KB
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