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वर्तमान, श्री नेमिनाथ जिनालय का इतिहास
गुर्जरदेश के पाटण नगर की समृद्धि उस काल में कुछ और ही थी । आचार्य हेमचंद्रसूरि महाराज साहेब के उपदेश से, पाटण से गिरनार और शत्रंजय महातीर्थ का छोरी पालित पैदल यात्रा संघ निकला था। श्री संघ आचार्य भगवंत सहित वणथली (वंथली) नामक गाँव के बाहर ठहरा था। संघ के नर-नारी स्नान आदि क्रिया कर, बहुमूल्य वस्त्र पहनकर, रत्नजडित आभूषण धारणकर, परमात्मा के जिनालय में, दर्शन-पूजा आदि परमात्मा की भक्ति में मग्न थे, संघपति के पास भी बहुत धन था । यह सब देखकर सोरठ के राजा राखेंगार की नीयत बिगडी । उसका पाटण के इस धनाढय यात्रा संघ को लूटने का इरादा था । उनसे उसको बहुत धन और सोना-चादी-रत्नो के आभुषण मिलने की बड़ी आशा थी।
बंदर को सीढ़ी मिल जाये, वैसे ही मित्रों ने राजा को प्रेरित किया, "राजन् ! आपके प्रचंड पुण्यप्रताप से आज गुर्जरदेश के पाटण नगर का धन और लक्ष्मी आपके यहाँ सामने से आई है। राजन् ! इस संघ को लूट लो ! जिससे आपका धनभंडार भी भर जायेगा ! मित्रों की इन बातों को सुनकर राजा का मन भी पिघल गया और संघ का सर्वस्व लूट लेने का मनोरथ उठा। परंतु राजमर्यादा का भंग और अपयश का डर उसे सता रहा था । धन को किस तरह लूटा जाये उसका विचार राजा करने लगा । संघ को लूटने के दुष्ट इरादे से, संघ को एक दिन और रोकने का उपाय अजमाया । दूसरे दिन राजकुटुंब में किसी बड़े की मृत्यु हो गई। उस दौरान आचार्य भगवंत ने राखेंगार की दुष्ट नीयत को जान लिया, इसलिए उन्होंने इस मृत्यु के बहाने राजमहल में रा'खेंगार को उपदेश देते हुए नीति के मार्ग पर चलने की हितशिक्षा दी। श्री संघ वहाँ से रवाना होकर श्री शत्रुजय महातीर्थ की यात्रा करके पुनः पाटणनगर आ पहुंचा ।
पाटण नरेश राजा सिद्धराज को रा'खेंगार के इस दुष्ट विचार के समाचार मिलते ही उसने सोरठ देश पर चढ़ाई करके सं. ११७० में रा'खेंगार को हराकर कैद कर लिया और हमेशा के लिए उसकी राक्षसीलीला का अंत हुआ । उस समय महाराजा सिद्धराज का मंत्री सज्जन उंदिरा से खंभात जा रहा था । तभी बीच में सकरपुर नामक गाँव में भावसार के यहाँ उतरा। भावसार के घर में कडाई में सोनामोहरें भरी हुई थी फिर भी किसी कारणवश उसे वह कोयला ही समझता था । सज्जनमंत्री ने पूछा, "भाई ! ये सोना-मोहरें उसमें क्यों रखी हैं ?" भावसार ने सज्जन मंत्री को पुण्यवान समझकर सब सोना-मोहरें उसे दे दी सज्जनमंत्री ने भी पराये धन को ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा की वजह से वह सोनामोहरें राजा सिद्धराज को अर्पण कर दी।