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________________ समय बीतता गया । रत्नश्रावक के सत्त्व की परीक्षा प्रारंभ होने लगी। अनेक विघ्न आने पर भी रतन अपने संकल्प में मजबूत रहा। रतन के सत्व और निश्चलता के प्रभाव से प्रसन्न हई शासन की अधिष्ठायिका अंबिका देवी एक महिने के अन्त में प्रगट हुई। उनके दर्शन होते ही तपधर्म का प्रभाव जानकर हर्षातुर बना रतन अंबिकादेवी को नमस्कार करता है। अंबिकादेवी कहती है, "हे वत्स! तू धन्य है, तू खेद क्यों करता है? स्वयं तीर्थयात्रा करने के साथ अनेक भव्य जीवों को संघ के साथ इस महातीर्थ की यात्रा करवाकर तुमने अपने मनुष्य जन्म को सफल किया है। इस प्रतिमा का पुराना लेप नाश होने पर नया लेप होता ही रहता है। जिस तरह जीर्णवस्त्र निकालकर नये वस्त्र ग्रहण किए जाते हैं, उसी तरह तुम भी इस प्रतिमा का नया लेप करवाकर पुनः प्रतिष्ठा करवाओ!" अंबिकादेवी के वचन सुनकर विषादग्रस्त बना रतन कहता है, मा ! आप ऐसे वचन न उच्चारो ! पूर्वबिंब का नाश करके मैं भारी कर्मी बना हूँ, और आपकी आज्ञा से मूर्ति का लेप करवाकर पुनः स्थापना करूं तो भविष्य में पुन: मेरी तरह अन्य कोई अज्ञानी इस बिंब का नाश करनेवाला बनेगा । इसलिए ओ मैया ! आप यदि मेरे तप से प्रसन्न हों, तो मुझे ऐसी कोई अभंग मूति दीजिए जिससे भविष्य में किसी के द्वारा इसका नाश न हो सके और भक्तजन भाव से जलाभिषेक करके अपनी इच्छाओं को पूर्ण कर सके ।' अंबिकादेवी रत्नश्रावक के इन वचनों को सुना अनसुना कर अदृश्य हो गयी । अंबिका देवी को अदृश्य होते देखकर रत्नश्रावक पल-दो-पल अस्वस्थ बन गया । परन्तु अनुपम सत्त्व का स्वामी रतन स्वस्थ बनकर पुनः अंबिकादेवी के ध्यान में बैठ गया। रतन के महासत्व की कसौटी करने के लिए देवी ने अनेक उपसर्गों के द्वारा उसे ध्यान से चलायमान करने की बहुत कोशिश की, परन्तु वह मेरुसम निश्चल रहा । तब गर्जना करते हुए सिंहवाहन के ऊपर बैठकर चारों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई अंबिकादेवी पुन: प्रत्यक्ष होकर कहती है, "हे वत्स ! तेरे दृढ सत्त्व से मैं प्रसन्न हूँ, तुम मुझसे वरदान मांगो।" देवी के इन वचनों को सुनकर रत्नश्रावक कहता है, "हे मा ! इस महातीर्थ के उद्धार के सिवाय मेरा अन्य कोई मनोरथ नहीं है, आप मुझे श्री नेमिनाथ प्रभु की ऐसी वज्रमय मूति दीजिए जो शाश्वत रहे, और जिसकी पूजा से मेरा जन्म कृतार्थ बने एवं पूजा करनेवाले अन्य जीव भी हर्षोल्लास को प्राप्त करें!" अंबिका देवी कहती है, "सर्वज्ञ भगवंत ने तेरे द्वारा तीर्थ का उद्धार होगा ऐसा कहा है इसलिए तुम मेरे साथ चलो ! मेरे पीछे-पीछे इधर-उधर देखे बिना चले आओ" । रत्नश्रावक देवी के पीछे-पीछे चलने लगा। बायीं तरफ के अन्य शिखरों को छोडती हुई देवी पूर्व दिशा की तरफ, हिमादिपर्वत के कंचन शिखर पर गयी, जहाँ सुवर्ण नामक, गुफा के पास आकर देवी सिद्धविनायक नामक अधिष्ठायक देव को विनती करती है, 'भद्र ! इन्द्र महाराजा के आदेश से आप
SR No.009951
Book TitleChalo Girnar Chale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size450 KB
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