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________________ "हे रत्नसार ! तेरे द्वारा इस रैवतगिरि तीर्थ का नाश होगा और तेरे ही द्वारा इस तीर्थ का उद्धार भी होगा" । जिनेश्वर परमात्मा का शासन जिसके रोम-रोम में बसा था, ऐसा रत्न श्रावक इस महातीर्थ के नाश में निमित्त बनने के लिए कैसे तैयार हो ? हृदय के उछलते भावों के साथ नेमिप्रभु को वंदन के लिए आया हुआ रत्नश्रावक अत्यन्त खेद के साथ दूर रहकर ही वंदन कर वापस जा रहा था। गुरु आनंदसूरी कहते है, "रतन ! इस तीर्थ का नाश तेरे द्वारा होगा, इसका अर्थ तेरा अनुसरण करनेवाले श्रावकों के द्वारा होगा। तेरे द्वारा तो इस महान तीर्थ का अधिक उद्धार होगा। इसलिए खेद मत कर !" गुरुभगवंत के उत्साहपूर्ण वचन सुनकर रत्नश्रावक संघ के साथ रैवतगिरि के मुख्य शिखर पर प्रवेश करता है। हर्ष से भरे यात्रीगण गजेन्द्रपद कुंड (हाथी पगला) से शुद्ध जल निकालकर स्नान करने लगे। रत्नश्रावक ने भी इस दिव्य जल से स्नान करके उत्तम वस्त्रों को धारण कर, गजपदकुंड के जल को कुंभ में ग्रहण कर, जैन धर्म में दृढ ऐसे विमलराजा के द्वारा रैवतगिरि पर स्थापित लेपमयी श्री नेमिनाथ प्रभु के काष्ठमय प्रासाद में प्रवेश किया । सभी यात्रीगण हर्षविभोर बनकर गजपदकुंड के शुद्ध जल से कुंभ भर-भर कर प्रक्षालन कर रहे थे। इस अवसर पर अनेक बार देवताओं और पूजारी के द्वारा निषेध करने पर भी उनकी बात की अवगणना कर, हर्ष के आवेश में ज्यादा पानी के द्वारा प्रक्षालन करने से जल की एकधारा के प्रवाह के प्रहार से लेप्यमयी प्रतिमा का लेप गलने लगा और थोडी ही देर में वह प्रतिमा गिली मिट्टी के पिंड स्वरूप बन रही थी। इस दृश्य को देखकर रत्नश्रावक अत्यन्त आघात के साथ शोकातुर बना और मूच्छित हुआ । इससे सकलसंघ शोक के सागर में डूब गया। चारों तरफ हाहाकार मच गया । संघपति रत्न श्रावक पर शीतल जल के उपचार किये गये। थोड़ी ही देर में संघपति रत्नश्रावक स्वस्थ बन गया। प्रभुजी की प्रतिमा गलने से टूटे हुए हृदयवाला रत्नश्रावक आकुल व्याकुल होकर विलाप करने लगा कि "इस महातीर्थ का नाश करनेवाला मैं महापापी! मुझे धिक्कार हो ! अज्ञानी ऐसा मेरा अनुकरण करनेवाले यात्रिकों को भी धिक्कार हो ! अरे ! यह क्या हो गया ? मैं उछलते हृदय के भावों के साथ इस महातीर्थ के दर्शन करने आया और तीर्थ उद्धार के बदले तीर्थनाश में निमित्त बन गया। अब मैं कौन से दानशील-तप-भाव धर्म के कार्य करूँ ? जिसके प्रभाव से मेरा यह पापकर्म नाश हो जाए ! नहीं ! नहीं ! अब तो अनेक सुकृत करने पर भी मेरा यह दुष्कृत्य नाश नहीं होगा। ऐसा लगता है ! अब व्यर्थ चिंता करने से क्या फायदा ? अब तो नेमिनाथ परमात्मा ही मुझे शरणभूत हैं!" ऐसे दृढ़ संकल्प के साथ रत्नश्रावक चार आहार का त्याग कर वहीं प्रभु के चरणों में आसन लगाकर बैठ गया । १७
SR No.009951
Book TitleChalo Girnar Chale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size450 KB
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