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वर्तमान श्री नेमिनाथ परमात्मा की प्रतिमा का
पुन: प्रकटीकरण और रनसार श्रावक
वर्तमान अवसर्पिणी के भरतक्षेत्र की भव्य भूमी पर बाइसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ परमात्मा के निर्वाण के २००० वर्ष व्यतीत हो चुके थे । उसी काल में सोरठ देश की धन्यधरा पर कांपिल्य नामक नगर में रत्नसार नामक धनिक श्रावक रहता था। अचानक १२ वर्ष तक दुष्काल का समय आया। पशु तो क्या मानव भी पानी के अभाव से मरने लगे। उस समय आजीविका की तकलीफ होने से धनोपार्जन करने के लिए रत्नश्रावक देशान्तर में घूमते घूमते काश्मीर देश के नगर में जाकर रहने लगा। रत्नश्रावक के स्थान बदलने के साथ ही उसके नसीब ने भी स्थान बदलने का निश्चय कर लिया था। वह अपने प्रचंड पुण्योदय से दिन-प्रतिदिन अपार धन कमाने लगा। पूर्वभवों में बांधे हुए कोई पुण्यानुबंधी पुण्य के उदय से प्राप्त लक्ष्मी को, कदम-कदम पर सन्मार्ग में व्यय करने की भावना रत्नश्रावक के मन में उत्पन्न होने लगी। संपत्ति का संग्रह न करते हुए, संपत्ति का सदुपयोग कर सद्गति की तरफ प्रयाण हेतु अरिहंत परमात्मा की विशिष्ट पूजा-भक्ति करने के लिए श्री आनंदसूरीश्वरजी महाराज साहेब की पुनित निश्रा में सिद्धाचल, गिरनार आदि महातीर्थों की स्पर्शना करने के लिए पैदल संघ यात्रा का प्रयाण किया ।
ग्रामानुग्राम देव-गुरु और साधर्मिक भक्ति तथा नये-नये जिनालयों का निर्माण करवाते हुए श्री आनंदसूरि गुरु की अपार भक्ति करते हुए संघ आगे बढ रहा था । पूर्वकृत अशुभ कर्मोदय से संघमार्ग में अंतरायभूत बननेवाले, व्यंतर, वैताल, राक्षस
और यक्षों के द्वारा होनेवाले उपसर्गो और विघ्नों का नाश करने के लिए श्री नेमिनिरंजन के शासन की अधिष्ठायिका अंबिकादेवी का ध्यान कर, रत्न श्रावक ने संघयात्रा को आगे बढाया । स्ववतन कांपिल्यनगर में स्वामिवात्सल्य सहित भक्ति से वहां के संघ को निमंत्रित कर, श्री आनंदसूरिगुरु की निश्रा में श्री संघ आनंदसभर तीर्थाधिराज श्री सिद्धगिरि के शीतल सान्निध्य में आया। आनंदोल्लास पर्वक शाश्वत तीर्थ की भक्ति करके श्री संघ रैवतगिरि महातीर्थ के रमणीय वातावरण में भूतकाल में हुए अनंत तीर्थंकरों की सिद्धभूमि की सुवास लेने लगा। वर्तमान चौबीशी के बाइसवें तीर्थंकर बालब्रह्मचारी श्री नेमिनाथ प्रभु की केवलज्ञान भूमि पर श्री नेमिजिन की पावन प्रतिमा की पूजा करके रत्नश्रावक के साथ संघ मुख्य शिखर की तरफ आगे बढ़ रहा था। उस समय रास्ते में जाते हुए सभी ने छत्रशिला को नीचे से कंपायमान होते हुए देखा । रलश्रावक ने तुरंत ही अवधिज्ञानी गुरु आनंदसूरि को इस छत्रशिला के कंपन का कारण पूछा तो, अवधिज्ञान के सामर्थ्य से पूज्य गुरुभगवंत आदरपूर्वक कहते हैं कि