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________________ वर्तमान श्री नेमिनाथ परमात्मा की प्रतिमा का इतिहास इस जंबूद्विप के भरतक्षेत्र की गत चौबीसी के सागर नामक तीसरे तीर्थंकर को कैवल्यज्ञान प्राप्त हुआ था । उत्तमज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् विविध प्रदेशो में विचरण करते हुए वे अपने चरणकमल की रज द्वारा भरतखंड की धन्य धरा को पावन कर रहे थे। एक बार उज्जैनी नगरी के बाहर उद्यान में करोडो देवों द्वारा रचित समवसरण में परमात्मा की सुमधुर देशना का अमृतपान कर रहे नरवाहन राजा ने परमात्मा से प्रश्न किया कि "हे प्रभु ! मेरा मोक्ष कब होगा? परमात्मा ने कहा कि अगली चौबीसी के बाईसवें तीर्थंकर बालब्रह्मचारी श्री नेमिनाथ भगवान के शासन में तेरा मोक्ष होगा । अपने भाविवृत्तांत को जानकर वैराग्यवासित बने नरवाहन राजा भगवान के पास दीक्षा लेकर संयमधर्म की उत्कृष्ट आराधना करने लगे । कालक्रम से आयुष्य पूर्ण होते ही वह जीव पांचवें देवलोक का दस सागरोपम के आयुष्यवाला इन्द्र बना । अष्टमहाप्रातिहार्ययुक्त विश्वविभु विचरण करते-करते चंपापुरी के महाउद्यान में समवसरे । उस समय वैराग्यसभर वाणी द्वारा बारह पर्षदा को प्रतिबोध करते हुए परमेश्वर चौदराज लोक में रहे हुए सिद्धजीव और सिद्धशिला के स्वरुप को सुरम्य वाणी द्वारा प्रकाशित कर रहे थे, कि “४५ लाख योजन के विस्तारवाली, उलटे छत्र के आकारवाली, श्वेतवर्ण की सिद्धशिला है। वह चौदराजलोक के अग्रभाग पर बारह देवलोक, नवग्रैवेयक, सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तरविमान से १२ योजन ऊपर स्थित है। सिद्धशिला मध्य भाग में आठ योजन मोटी है और दोनों तरफ पतली होते होते मक्खी के पंख जितनी अतिशय पतली होती है। मोती, शंख, स्फटिकरत्न समान अतिनिर्मल, उज्ज्वल सिद्धशिला और अलोक के बीच एक योजन का अंतर होता है । इस अंतर में ऊपर की सपाटी पर उत्कृष्ट से ३३३ धनुष्य और ३२ अंगुल के उत्कृष्ट देहप्रमाण वाले सिद्ध के जीव आठ कर्मों से मुक्त होकर अलोक की सपाटी को स्पर्श करके रहे हुए है, उस भाग को मोक्ष कहते हैं। मोक्ष के मुक्ति, सिद्धि, परमपद, भवनिस्तार, अपुनर्भव, शिव, निःश्रेयस, निर्वाण, अमृत, महोदय, ब्रह्म, महानंद आदि अनेक नाम हैं । उस मुक्तिपुरी में अनंत सिद्ध जीव अनंत सुख में वास करते हैं। वे अविकृत, अव्ययरूप, अनंत, अचल, शांत, शिव, असंख्य, अक्षय, अरूप और अव्यक्त हैं। उनका स्वरूप मात्र जिनेश्वर परमात्मा अथवा केवली भगवंत ही जानते हैं। सर्वार्थसिद्ध विमान में निर्मल अवधिज्ञानवाले महेन्द्रों को एक करवट बदलने में १६॥ सागरोपम और दूसरी करवट बदलने में १६।। सागरोपम का काल पसार होता है। इस तरह ३३ सागरोपम के आयुष्य को अगाध सुख
SR No.009951
Book TitleChalo Girnar Chale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size450 KB
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