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में सोते सोते ही पूर्ण करते हैं। इससे भी अनंतगुणा सुख मोक्ष में है। योग से पवित्र ऐसे पुरुष कर्म का नाश होने से स्वयं ही जान सकते है, किंतु वचन द्वारा वर्णन न हो सके ऐसा मुक्तिसुख सिद्ध के जीव प्राप्त करते हैं ।
इस देशना के समय पांचवें देवलोक में इन्द्र बना हुआ नरवाहन राजा का जीव वीतराग की वाणी का सुधापान करके, स्वर्ग के सुखों की निःस्पृहा करके, सर्वज्ञ भगवंत को नमन करके पूछता है, "हे स्वामी ! मेरे इस भवसागर का परिभ्रमण कभी रूकेगा या नहीं ? आपके द्वारा वर्णन किए हुए मुक्तिरूप मेवा का आस्वाद करने का अवसर मुझे मिलेगा या नहीं ? उसकी शंका का निवारण करते हुए धर्मसार्थवाह प्रभु कहते हैं, "हे ब्रह्मदेव ! आप आनेवाली अवसर्पिणी में श्री अरिष्टनेमि नामक बाईसवें तीर्थंकर होनेवाले हैं, उनके वरदत्त नामक प्रथम गणधरपद को प्राप्त करके, भव्यजीवों को बोध कराके सर्वकर्मों का क्षय करके, रैवतगिरि के आभूषण बनके परमपद को प्राप्त करेंगे। यह निःसंशय बात है।" प्रभु के इन अमृतवचनों को सुनकर आनंदविभोर हुए ब्रह्मेन्द्र सागर प्रभु को अत्यंत आदरपूर्वक अभिवंदन करके अपने देवलोक में जाता है ।
"अहो ! मेरे अज्ञानरूपी अंधकार का छेदन करनेवाले, मेरे भवसंसार के तारणहार श्री नेमिनिरंजन की उत्कृष्ट रत्नों की मूर्ति बनाकर उनकी भक्ति द्वारा मेरे कर्मों का क्षय करूँ ।" इस भाव के साथ बारह - बारह योजन तक जिनकी कांति फैले ऐसे अंजन स्वरूपी प्रभु की वज्रमय प्रतिमा बनाकर दस सागरोपम तक निशदिन शाश्वत प्रतिमा की तरह संगीत-नृत्य-नाटकादि द्वारा त्रिकाल उपासना करते हैं। इस तरह श्री नेमिनाथ प्रभु की भक्ति में उत्तरोत्तर उत्तमभाव लाकर स्व आयुष्य की अल्पता को जानकर उस प्रतिमा के साथ सुवर्णमय, रत्नमय ऐसी अन्य प्रतिमाओं को भी रैवताचल पर्वत की गुफा में कंचनबलानक नामक चैत्य का निर्माण करके स्थापना की। स्व आयुष्य पूर्ण करके, वहाँ से च्यवन करके अनेक बड़े-बड़े भवों को प्राप्त करके वह नेमिनाथ प्रभु के समय में पुण्यसार नामक राजा बना ।”
यह पुण्यसार राजा पूर्वभवों में स्वयं भरायी हुई देवाधिदेव की मूर्ति की दस-दस सागरोपम काल तक की हुई भक्ति के प्रभाव से गणधरपद प्राप्त करके नेमिनाथ भगवान के वरदत्त नामक प्रथम गणधर बनेंगे और शिवरमणी के संग में शाश्वत सुख का उपभोग करेंगे।" समवसरण में देशना दरम्यान श्री नेमिनाथ प्रभु के इन मधुरवचनों को सुनकर उस समय के ब्रह्मेन्द्र उठकर परमात्मा को नमस्कार करके कहते हैं कि "हे भगवंत ! आपकी उस प्रतिमां को मैं आज भी पूजता हूँ, और मेरे पूर्वज इन्द्रों ने भी भक्ति से उसकी उपासना की है। पाँचवें देवलोक में उत्पन्न होनेवाले सभी ब्रह्मेन्द्र आपकी उस प्रतिमा की पूजा भक्ति करते थे। आज आपके बताने पर ही इस प्रतिमा की अशाश्वतता का पता चला है। हम तो इसे शाश्वत ही मानते थे 1
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