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श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखे ।
अर्थ... एक मुहूर्त पहले भरणि का उदय नहीं हुआ ।' क्योंकि भरणि के उदय विरुद्ध पुनर्वसु उत्तरचर ( पीछे उदय होने वाले) पुष्य नक्षत्र का उदय हो रहा है । अर्थात् पुष्यनक्षत्र का उदय पुनर्वसु का उत्तरचर है; इसलिये उसी के उदय को जनावेगा, कि हो गया, शौर भरणि के हो चुके उदय का निषेध करेगा । इसलिये यहाँ यह हेतु विरुद्धोत्तरचरोपलब्धि हुआ ।। ७३ ।।
संस्कृतार्थ - नोदगाद्भरणिः मुहूर्तात्पूर्वं पुष्पोदयात् । प्रत्र भरण्यु'दयाद् विरुद्धस्य पुनर्वसूत्तरचरस्य पुष्यस्योदयो विद्यते । अर्थात् पुष्यनक्षत्रोदय: पुनर्वसु नक्षत्रोत्तरचरो घर्तते ऽतस्तस्यैवोदयं सूचयिष्यति यत्पुनर्वसूदयो भूतस्तथा च भूतभरष्युदयं निषेत्स्यति, अतोऽत्रायं पुष्योदयत्वहेतु: विरुद्धोत्तरचरोपलब्धि जतिः ॥ ७२ ॥
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विरुद्ध सहचरोपलब्धेरुदाहरणम्, विरुद्धसहचरहेतु का उदाहरणनास्त्यन्त्र भित्तों परभागाभावो ऽ. वग्भागदर्शनात
अर्थ- इस दीवाल में उस तरफ के भाग का प्रभाव नहीं है, क्योंकि उस तरफ के भाग के अभाव से विरुद्ध उस तरफ के भाग के सद्भाव का साथी, इस तरफ का भांग दीख रहा है। अर्थात् उस तरफ के भाग के सद्भाव का साथी मौजूद है, इसलिये वह उसके सद्भाव को ही कहेगा, कि इस तरफ का भाग भी मौजूद है। इस कारण यह हेतु विरुद्धसहचरोपलब्धिहेतु हुणा ॥ ७३ ॥
संस्कृतार्थ - नास्त्यत्र भित्तौ परभागाभावो ऽ वग्भिागदर्शनात् । अत्र परभागाभावाद् विरुद्धः परभागसद्भावसहचरो ऽवग्भागो दृश्यते । अर्थात्परभागसद्भाव सहचरो विद्यते ऽतः सः परभागसद्भावमेव साधयिष्यति । अतोऽत्रायम् श्रवग्भिागदर्शनस्वहेतुः विरुद्ध सहचरोपलब्धिहेतुः जतिः ॥ ७३ ॥
श्रविरुद्धानुपलब्धिभेदाः, श्रविरुद्धानुपलब्धि के भेदअवान लषि: तिवषे सतवा, वभ