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न्यायशास्त्र सुबोधटीकायां तृतीयः परिच्छेदः। ७७ कार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरानुपलभभेदात् ॥७४॥
संस्कृतार्थ--अविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधसाधिका जायते । तस्याः सप्त भेदा विद्यन्ते । अविरुद्धस्वभावानुपलब्धिः, अविरुद्धव्यापकानुपलब्धिः, अविरुद्ध कार्यानुपलब्धिः, अंविरुद्धकारणानुपलब्धिः, अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धिः, अविरुद्धोत्तरचरानुपलब्धिः, अविरुद्धसहचरानुपलब्धि- श्चेति ॥७४।।
अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि का उदाहरण--- नास्त्यत्र भूतले घटोऽनुपलब्धोः ॥७॥
अर्थ—इस भूतल में घट नहीं है, क्योंकि वह दिखता नहीं है। यहां घट के प्राप्त होने रूप स्वभाव का भूतल में प्रभाव है, इसलिये वह घट के प्रभाव को सिद्ध करता है, अर्थात् प्रतिषेध करने योग्य घट के अविरुद्धस्वभाव का अनुपलम्भ (अभाव) है । इसलिये यह हेतु अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि हुा ।।७।।
. संस्कृतार्थ- नास्त्यत्र भूतले घटो ऽ नुपलब्धेः । अत्र घटप्राप्तिरूपस्वभावस्य भूतले. भावो विद्यते ऽ तः स घटाभावं साधयति । अर्थात प्रतिषेधयोग्यघटस्याविरुद्धस्वभावस्यानुपलम्भो वर्तते । अतो ऽ यमनपलब्धित्वहेतुः 'अविरुद्धस्वभावान् पलब्धिहेतुः जातः ।।७।।
अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि का उदाहरण -. नास्त्यत्र शिशपा वृक्षानुपलब्धः ॥७६॥ . - अर्थ-यहां सीसौन नहीं है, क्योंकि उसके व्यापक वृक्ष का अभाव है। व्यापक वृक्ष के बिना व्याप्य शिंशपा हो ही नहीं सकता। अर्थात यहां व्यापक वृक्ष की अनुपलब्धि, व्याप्य शिंशपा. (सीसौन) के प्रतिषेध
को सिद्ध करती है। इसलिये यह हेतु अविरुद्धव्यापकानुपलब्धिहेत - हुआ !