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न्यायशास्त्रे सुबोधटीकायां तृतीयः परिच्छेदः ।
संस्कृतार्थ – परिणामी शब्दः इति प्रतिज्ञा । कृतकत्वादिति हेतुः । यथा घटः इत्यन्वयदृष्टान्तः । यथा वन्ध्यास्तन्धयः इति व्यतिरेकदृष्टान्तः । कृतकश्चायमित्युपनयः । तस्मात्परिणामीति निगमनम् । एवमत्र पूर्वं बालव्युत्पत्त्यर्थम् अनुमानस्य यानि पञ्चाङ्गानि अंगीकृतानि तान्युपदशितानि । श्रत्र कृतकत्वादिति हेतु:, शब्दस्य परिणामित्वं साधयति, परिणामित्वेन व्याप्तं च वर्तते श्रतोऽविरुद्धव्याप्योपलब्धिनामत्वं लभते ॥ ६१॥
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विशेषार्थ – यहां परिणामित्व साध्य से श्रविरुद्धव्याप्य कृतकत्व की उपलब्धि है ॥ ६१॥
अविरुद्ध कार्योपलब्धि ( कार्यहेतु) का उदाहरण
अस्त्यत्र देहिनि बुद्धि यिहारादेः ॥ ६२ ॥
अर्थ - इस प्राणी में बुद्धि है, क्योंकि बुद्धि के कार्य वचन श्रादि पाये जाते हैं | यहां बुद्धि के अविरुद्ध कार्य वचनादिक की उपलब्धि है; इसलिये यह अविरुद्ध कार्योपलब्धि हेतु है ।
संस्कृतार्थ - अस्त्यत्र देहिनि बुद्धिः व्याहारादेरित्यत्र बुद्ध्यविरुद्धकार्यस्य वचनादेरुपलब्धिः दृश्यते श्रतोऽयम् अविरुद्ध कार्योपलब्धिहेतुः कथ्यते ॥ ६२॥
विशेषार्थ – वचन की चतुरता और व्यापार आदिक बुद्धि बिना नहीं हो सकते । इस प्रकार बुद्धि के कार्य वचनादिक बुद्धिनामक साध्य को साधते हैं, इसलिये ये 'कार्यहेतु' हुये ।
अविरुद्धका रणोपलब्धि ( कारणहेतु) का उदाहरण
अस्त्यत्र छाया छत्रात् ॥ ६३ ॥
अर्थ – यहां छाया है, क्योंकि यहां छत्र मौजूद है । किसी जगह छत्र देखा था और जाना था कि इसके नीचे छाया है, जहां छत्र होता है वहां छाया भी होती है। इस प्रकार यहां छत्रनामकका रपहेतु छाया