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श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखे
अर्थ- सहचारी पदार्थ परस्पर की भिन्नता से रहते हैं अर्थात् उनकी प्रतीति परस्पर की भिन्नता से होती है, इसलिये सहचारी हेतु का स्वभावहेतु में अन्तर्भाव नहीं हो सकता। और सहचारी पदार्थ एक साथ उत्पन्न होते हैं इस कारण उनमें कार्यकारणभाव भी नहीं बन सकता, जिससे कि कार्य हेतु या कारणहेतु में अन्तर्भाव हो सके ॥६०॥
संस्कृतार्थ- सहचारिणोरपि साध्यसाधनयोः परस्परपरिहारेणावस्थानात् सहचराख्यहेतो न स्वभावहेतावन्तर्भावः। सहोत्पादाच्च न कार्यहेतौ कारणहेतौ वान्तर्भावः। तस्मात्सौगतैः सहचराख्यो ऽ पि हेतु: स्वतन्त्र एवाभ्युपगन्तव्यः ॥६॥
विशेषार्थ--जिस प्रकार युगपत् उन्पन्न हुये गाय के सींगों में कार्यकारणभाव नहीं होता, उसी प्रकार सहचरों में भी नहीं होता, इसलिये सहचरहेतु भी एक भिन्न ही हेतु है ।।६०॥
अविरुद्धव्याप्योपलब्धि का उदाहरण-- परिणामी शब्दः कृतकत्वात्, य एवं; स एवं दृष्टो, यथा घटः, कृतकरचायं तस्मात्परिणामीति, यस्तु न परिणामी सन कृतको दृष्टो; यथा बन्ध्यास्तनधायः, कृतकश्चायं, तस्मात्परिणामो ॥६१.।
अर्थ-शब्द परिणामी होता है क्योंकि वह किया हुआ है। जो जो किया हुआ होता है वह वह परिणामी होता है, जैसे घड़ा। घड़े की तरह शब्द भी किया हुआ है। अतः वह भी परिणामी होता है। जो पदार्थ परिणामी नहीं होता वह पदार्थ किया भी नहीं जाता, जैसे वन्ध्यास्त्री का पुत्र। उसी तरह यह शब्द कृतक होता है, इसी कारण परिणामी होता है। यहाँ परिणामित्व साक्ष्य से अविरुद्धव्याप्य कृतकत्व की उपलब्धि है ॥६॥