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न्यायशास्त्र सुबोषटीकायां तृतीयः परिच्छेदः। ६६ विशेषार्थ-अपशकुन तो होता है पर मरण हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। इसी प्रकार शयन के बाद जागने पर जाग्रत अवस्था की बात याद आती भी है और नहीं भी आती है। इसलिये बौद्धों का काल का व्यवधान होने पर भी कार्यकारणभाव मान कर पूर्वचर और उत्तरचर हेतुओं का स्वभावादि हेतु में अन्तर्भाव मानना उचित नहीं है ॥५॥
कालव्यवधान होने पर भी कार्यकारणभाव मानने के
खण्डन में हेतुतव्यापाराश्रितं हि तभावभावित्वम् ॥५६॥
अर्थ-क्योंकि कार्यकारणभाव का होना कारण के व्यापार की अपेक्षा रखता है ॥५६॥
संस्कृतार्थ-यस्मात्कारणात् कार्यकारणभावः कारणव्यापाराश्रितो विखते, ततो मरणजापद्बोषयोरपि नारिष्टबोधौ प्रति हेतुत्वम् अतिव्यव- हितपदार्थानां कारणव्यापारसापेक्षाभावात् ॥५६॥
विशेषार्थ-उसके (कारण के) सद्भाव में उसका (कार्य का) होना कारण के व्यापार के प्राधीन है। परन्तु जब मरण है ही नहीं ; तब उसका अरिष्ट के होने में व्यापार ही क्या होगा, जिससे कि कार्यकारणभाव मान लिया जावे। इसी प्रकार जाग्रदबोध जब नष्ट ही हो गया; तब उसका भी उदबोध के प्रति क्या व्यापार होगा ? क्योंकि कारण बिना कार्य नहीं होता। जैसे कुम्भकार होय तो कलश बन सकता है, नहीं होय तो कलश नहीं बनता । इस कथन से यह निर्णय हुआ कि पूर्वचर और उत्तरचर स्वतन्त्र ही हेतु मानना चाहिये ॥५६॥
___ सहचरहेतु का स्वभावहेतु और कार्यहेतु से पृथक्पनহাবিজাবি অববিদ্যাইঅ্যানালাইভ