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न्यायशास्त्रे सुबोधटीकायां षष्ठः परिच्छेदः।
१२१ वैसे ही हमारे आत्मा के प्रमाण का फल, दोनों सदृश हो जावेंगे । फिर वह फल हमारे प्रमाण का है और दूसरे के प्रात्मा के प्रमाण का नहीं, यह कैसे निश्चित होगा ? तात्पर्य यह है कि जैसे दूसरे प्रात्मा के प्रमाण का फल हमारे प्रात्मा के प्रमाण का फल नहीं कहलाता उसी प्रकार सर्वथा भिन्न होने से हमारे प्रात्मा के प्रमाण का फल भी हमारा नहीं कहलावेगा ।। ७१ ॥
संस्कृतार्थ-प्रमाणात्फलस्य सर्वथा भिन्नत्वाङ्गीकारे ऽयं दोषः समायाति यद्यथा अन्यात्मप्रमाणफलं तथैव निजात्मप्रमाणफलम्, उभे एक
दृशे भवेताम् । पुनश्च तत्फलं मदीयप्रमाणस्य विद्यते नान्यदीयप्रमाणस्येति कथं निश्चीयेत। निष्कर्षश्चायं यद्यथान्यात्मप्रमाणफलमस्मदीयात्मप्रमाणफलं नो भवेत्तथा सर्वथा भेदे मदीयात्मप्रमाणफलमपि मदीयं नो व्यावयेत ॥ ७१ ॥
समवायसम्बन्ध से प्रमाण और प्रमाणफल का
निर्णय मानने का निषेध
समवाये ऽ तिप्रसंगः ॥ ७२ ॥
बौद्धों के यहाँ समवाय नित्य और व्यापक पदार्थ माना गया है, उससे यह निर्णय कैसे होगा कि इसी प्रात्मा में यह प्रमाण अथवा फल समवायसम्बन्ध से रहता है, दूसरे आत्मा में नहीं ॥ ७२ ॥
संस्कृतार्थ-नैयायिकानां कथनं विद्यते यद् यत्रात्मनि प्रमाण समवायसम्बन्धेनावतिष्ठेत तत्रैव फलमपि समवायसम्बन्धनावतिष्ठेत । तदास्य प्रमाणस्येदं फलमिति व्यवस्था समवायसम्बन्धेन भवेत् । अत्र सूत्रे तेषामस्या एवाशंकाया निषेधो विहितः यद् युष्माभिः बौद्धैः समवायो नित्यो व्यापकश्च मतः । तेनायं निर्णयः कथं भवेत्, यदवात्मनि एतत्फलं समवायसम्बन्धेनावतिष्ठते नान्यत्र ॥ ७२ ।।