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१२० श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखेक्योंकि जिस प्रकार प्रफल की व्यावृत्ति से फल की कल्पना होगी, उसी प्रकार दूसरे समान जातिवाले फल की व्यावृत्ति से अफल की कल्पना क्यों न हो जावेगी? इसलिये कल्पनामात्र से फल का व्यवहार नहीं हो सकता।
संस्कृतार्थ- फलाभावस्य व्यावृत्त्यापि फलस्य कल्पना नो सम्भवेत् फुलाभावव्यावृत्त्या फलकल्पनेव सजातीयफलव्यावृत्त्या 5 फलकल्पनायाः प्रसङ्गात् ॥ ६८ ॥
कल्पनामात्र से फलव्यवहार न हो सकने में दृष्टान्तप्रमाणान्तराट् व्यावृत्त्यावाप्रमात्वमस्य । ६९ ।
अर्थ-जिस प्रकार प्रमाणान्तर की व्यावृत्ति से अप्रमाणत्व का प्रसंग बौद्धों ने माना है, उसी प्रकार फलान्तर की व्यावृत्ति से अफलत्व का प्रसंग पा जावेगा।
संस्कृतार्थ- यथा प्रमाणान्तरव्यावृत्त्या अप्रमाणत्वस्य प्रसंगः बौद्धरङ्गीकृतस्तथैव फलान्तरव्यावृत्त्या अफलत्वस्य प्रसङ्गः आगच्छेत् ।। ६६ ।
प्रमाण और उसके फल में भेद का निर्णयतस्माद्वास्तवो भेदः । ७० ।
अर्थ- इसलिये प्रमाण और फल में भेद यथार्थ है, एकान्तरूप से अभेद ही नहीं।। ७० ॥
संस्कृतार्थ-प्रतः प्रमाणे तत्फले वा भेदो वास्तवो विद्यते, एकान्तरूपेणाभेदो नो वर्तते ॥ ७० ॥
प्रमाण वा फल में सर्वथा भेद मानने से हानि
हे स्वात्मान्तारवत्तापयत्तेः।। ७१॥
अर्थ-प्रमाण से फल को सर्वथा भिन्नं मानने में यह दोष आता है कि जिस तरह दूसरे प्रात्मा के प्रमाण का फल,