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न्यायशास्त्र सुवोधटीकायां षष्ठः परिच्छेदः ।
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अर्थ - जो स्वयं असमर्थ है वह सौ सहकारी मिलने पर भी किसी कार्य को नहीं कर सकता । जैसे पहले सहकारी बिना कार्य करने वाला नहीं था वैसे सहकारी मिलने पर भी नहीं ।
संस्कृतार्थ - स्वयमसमर्थेन तत्त्वेन कार्योत्पत्तिस्तु बन्ध्यासुतवत् असम्भवैय । तस्मान्यविशेषात्मकपदार्थ एव प्रमाणगोचरो भवति, शेषश्च विषयाभास इति ॥ ६५ ॥
प्रमाणफलाभास का वर्णन
फलाभासः प्रमाणादभितं भिन्नमेव वा ॥ ६६ ॥
अर्थ - प्रमाण से उसके फल को सर्वथा भिन्न ही या सर्वथा श्रभिन्न ही मानना प्रमाणभास है ।
संस्कृतार्थ --- प्रमाणात्सर्वथा अभिन्नमथवा सर्वथा भिन्नं फलम् फलाभासः कथ्यते ॥ ६६ ॥
फल को प्रमाण से सर्वथा अभिन्न मानने से हानिअभेदे सद्व्यवहारानुपपत्तेः ॥ ॥६७॥
अर्थ - यदि प्रमाण से फल सर्वथा अभिन्न ही माना जायगा तो यह प्रमाण है तथा यह फल है, इस प्रकार भिन्नत्व का व्यवहार नहीं बनेगा । या तो प्रमाण ही ठहरेगा या फल ही ठहरेगा, क्योंकि जुदे- जुदे दो पदार्थ तो हैं ही नहीं ॥ ६७ ॥
संस्कृतार्थ -- ननु प्रमाणात्सर्वथा श्रभिन्नस्य फलस्य कथं फलाभासता इति न शकंनीयं, फलस्य सर्वथा अभिन्नत्वाभ्युपगमे इदम्प्रमाणम्, इदञ्चास्य प्रमाणस्य फलम् इति व्यवहारस्यानुत्पत्तेः ॥ ६७ ॥
कल्पना से प्रमाण और फलका व्यवहार करने में श्रापत्तिव्यावृत्त्यापि न तत्कल्पना फलान्तराट् व्यावृन्याऽफलत्वप्रसंगात् ॥ ६७ ॥
अर्थ- - प्रफल की व्यावृत्ति से फल की कल्पना नहीं हो सकती