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११६ . श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखे
अर्थ--प्रत्यक्षप्रमाण से व्याप्ति का निर्णय नहीं होसकता, इसलिये जैसे व्याप्ति का निर्णय करने के लिये सौगतादिक को तर्क नाम का एक भिन्न ही प्रमाण मानना पड़ता है, उसी प्रकार परलोकादि का निषेध तथा पर की बुद्धि की सिद्धि प्रादि के लिये प्रमाणान्तर मानना पड़ेगा । तब एक ही प्रमाण मानना संख्याभास होगा ही।
___ यदि कोई कहे कि तर्क को मान कर भी हम उसे प्रमाण नहीं मानेंगे, अप्रमाण मान लेवेंगे, तब तो दूसरा प्रमाण नहीं मानना पड़ेगा, . इसलिये दृष्टान्त विषम है।
इसका उत्तर यह है कि जो स्वयं अप्रमाण होता है वह पदार्थों का ठीक ठीक निर्णय नहीं कर सकता, इसलिये तर्क को अप्रमाण नहीं माना जा सकता।
संस्कृतार्थ-किञ्चानुमानादेः परबुद्ध्यादिनिश्चायकत्वाभ्युपगमेऽपि चावीकाणाम्प्रत्यक्षकप्रमाणवादो हीयते । यथा सौगतादीनां तर्कप्रमागोन व्याप्ति निश्चयाभ्युपगमे स्वाभिमतद्वित्रिचतुरादिसंख्याव्याघातो भवति । किंच तर्कस्याप्रमाणत्वाभ्युपगमे व्याप्तिप्रतिपत्तिः खपुष्पवद् भवेत् । अप्रमाणस्य समारोपाव्यवच्छेदेन स्वविषयनिश्चायकत्वाभावात् ॥५६॥
पूर्वोक्त कथन की पुष्टिप्रतिभासस्य च भेदकत्वात् ॥६॥
अर्थ- प्रतिभासभेद ही प्रमाण के भेदों को सिद्ध करता है अर्थात् जिसने जितने प्रमाण माने हैं उनसे अधिक प्रमाणों की सिद्धि के लिये एक विलक्षण प्रतिभास ही साक्षी है।
जिन्होंने २, ३, ४, ५, ६ जितने भी प्रमाण माने हैं, उन सब के लिये व्याप्ति को विषय करने वाला तर्कप्रमाण, प्रतिभासभेद ( विलक्षण प्रतिभास) होने से मानना ही पड़ेगा, क्योंकि प्रतिभासभेद से ही प्रमाणों का भेद माना जाता है।