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न्यायशास्त्रे सुबोधटीकायां षष्ठः परिच्छेदः।
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प्रत्यक्षमात्र के संख्याभासत्व का दृढ़ीकरण
सौगतसांख्ययोगाभाकरजैमिनीयानां प्रत्यक्षानुमाলাফাল্লীহালাথাব্যামাইকাথিক: বিব।
अर्थ-जिस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमान आदि को लेकर एक एक अधिक प्रमाण से बौद्ध, सांख्य, योग, प्राभाकार और जैमिनीय व्याप्ति (अविनाभाव) का निर्णय नहीं कर सकते, उसी प्रकार चार्वाक भी एक प्रत्यक्षप्रमाण से ही परलोक आदि का निषेध तथा पर की बुद्धि आदिक की सिद्धि नहीं कर सकता।
संस्कृतार्थ-यथा सौगतसांख्ययोगप्राभाकरजैमिनीयाङ्गीकृत रेकं काधिकैः प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्त्याभावः व्याप्तेरनिर्णयोऽतस्तानि संख्याभासास्तथा चार्वाकोऽपि प्रत्यक्षमात्रेण परलोकादिनिषेधस्य परबुद्दयादेश्च सिद्धि कतु नो शक्नुयात् । अतस्तत्स्वीकृतम् प्रत्यक्षमेवैकम्प्रमाणं संख्याभासः। प्रमाणान्तर से परबुद्ध्यादिक की सिद्धि मानने से आपत्तिअनुमानादेरेतद्विषयत्वे प्रमाणान्तरत्वम् ॥५॥
अर्थ-यदि अनुमान प्रादिक से परलोक आदि का निषेध तथा पर की बुद्धि आदि की सिद्धि करोगे तो अनुमान आदि दूसरा प्रमाण मानना पड़ेगा। तब तो प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण मानना संख्याभास है, यह बिलकुल स्पष्ट हो जावेगा।
संस्कृतार्थ- अनुमानेन परलोकादिनिषेधस्य परबुद्ध्यादिसिद्धे वी स्वीकारेऽनुमानं द्वितीय प्रमाणम्माननीयम्भवेत् । तदा प्रत्यक्षमात्रस्य प्रमाणस्याङ्गीकरणं संख्याभासः सुस्पष्टो भवेत्॥५८।।
तर्क को अप्रमाण मानकर संख्याभासत्व के निराकरण से हानि. একই গুলি চালায়লমলাতাस्याव्यवस्थापकत्वात् ॥ ५६ ॥