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न्यायशास्त्र सुबोधटीकायां षष्ठः परिच्छेदः। . ११७
संस्कृतार्थ-किञ्च वस्तुस्वरूपप्रतिभासभेद: एव प्रमाणभेदान् व्यवस्थापयति । यथा स्पष्टप्रतिभासः प्रत्यक्षम, अस्पष्टप्रतिभासश्च परोक्षं कथ्यते, तथा व्याप्तिरूपः प्रतिभासस्तों निगद्यते । एवञ्च तर्कप्रमाणेऽङ्गीकृते चार्वाकादीनामङ्गीकृतप्रमाणसंख्याव्याघातो 5 निवार्यो भवेत् । अतस्तत्स्वीकृतप्रमाणसंख्यायाः प्रमाणसंख्याभासत्वमनिवार्य जायेत ॥६॥
प्रमाणविषयाभास का स्वरूप-- विषयाभासः सामान्यं विशेषो द्वयं वा स्वतन्त्रम् ।
अर्थ-- केवल सामान्य (पर्याय) को ही, केवल विशेष (द्रव्य) को ही अथवा दोनों रूप पदार्थ को ही स्वतन्त्रता से एक-एक को प्रमाण का विषय मानना विषयाभास है।
संस्कृतार्थ—सामान्यमात्रस्य, विशेषमात्रस्य, स्वतन्त्रस्य स्वतन्त्रस्य द्वयस्यं वा प्रमाण विषयत्वेनाङ्गीकरणं प्रमाणविषयाभासः प्रोच्यते ॥६॥
विशेषार्थ- सांख्य पर्यायरहित केवल द्रव्य (सामान्य) को ही, बौद्ध द्रव्यांशरहित केवल पर्याय (विशेष) को ही तथा नैयायिक वा वैशेषिक सामान्य और विशेष स्वरूप पदार्थ को मानकर भी, सामान्य तथा विशेष को दूसरे की सहायता रहित स्वतन्त्रता से प्रमाण का विषय मानते हैं इसलिये वे सब विषयामास हैं, क्योंकि प्रमाण का विषय परस्पर सापेक्ष उभयात्मक है।
__ केवल सामान्यादिक के विषयाभासत्व में हेतुतथाप्रतिभासनात कार्याकरणाच॥६२॥
अर्थ- सामान्य-विशेष रूप ही पदार्थ का प्रतिभास होता है। तथा वैसा ही पदार्थ अपने कार्य (अर्थक्रिया) करने में समर्थ होता है। अन्य सामान्य रूप अथवा विशेष रूप पदार्थ नहीं, इसलिये वे विषयाभास कहे जाते हैं।