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न्यायशास्त्रे सुबोधटीकायां तृतीयः परिच्छेदः ।
जाय, इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है, इसलिये इस हेतु को शंकितव्यभिचारी विपक्षवृत्ति कहते है । अर्थात् इसके विपक्ष में रहने की शंका है ||३३||
संस्कृतार्थ - नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात् । सत्यपि वक्तृत्वे सर्वज्ञत्वस्याविरोधः । श्रर्थादस्य हेतोः विपक्षे वृत्तिः सम्भाव्यते, अत एवायं हेतुः शंकित विपक्षवृत्ति विद्यते ||३३||
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शंकित विपक्षवृत्तित्व की पुष्टि
सर्वज्ञत्वेन वक्त त्वाविरोधात् ॥३४॥
अर्थ- सर्वज्ञ पने के साथ वक्तापने का कोई विरोध नहीं है । इस लिये सर्वज्ञ के सद्भावरूप विपक्ष में भी यह हेतु रह सकता है ||३४|| संस्कृतार्थ – सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधादयं हेतुः सर्वज्ञसद्भावरूपे विपक्षेऽपि सम्भवेत् । अतएवास्य शंकितविपक्षवृत्तिसंज्ञा साथिकैव ॥ ३४ ॥
अकिञ्चित्करहेत्वाभास का स्वरूप
सिद्धे प्रत्यक्षादिवाधिते च साध्ये हेतुरकिञ्चित्करः ।। ३५ ।।
अर्ध- - साध्य के सिद्ध होने पर तथा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित होने पर हेतु कुछ भी नहीं कर सकता, इसलिये वह अकिञ्चित्कर हेत्वाभास कहा जाता है ॥ ३५ ॥
संस्कृतार्थ --- साध्ये सिद्धे, प्रत्यक्षादिबाधिते वा सति हेतुः किञ्चिदपि तु नो शक्नुयात् श्रतएव सोऽकिञ्चित्करः हेत्वाभासः प्रोच्यते ॥ ३५ ॥
- सिद्धसाध्य प्रकिञ्चित्कर का उदाहरण -
सिद्धः श्रावण.' शब्द शब्दस्यात ॥३६॥