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श्रमाणिक्यनन्दिस्वामिदिरचिते परीक्षामुखे
विशेषार्थ--सन्दिग्ध साध्य वाले धर्मी को पक्ष कहते हैं। साध्य के समान धर्म वाले धर्मी को सपक्ष कहते हैं। और साध्य से विरुद्ध धर्म वाले धर्मी को विपक्ष कहते हैं। जो हेतु इन तीनों में रहता है उसे अन कान्तिक या व्यभिचारी हेतु कहते हैं। उसके दो भेद हैं, निश्चितविपक्षवृत्ति और शंकितवृत्ति ॥३०॥
__ निश्चितविपक्षवृत्ति का उदाहरणनिश्चितविपक्षवृत्तिरनित्यः शब्दः प्रमेयत्वाद घटवत् ॥३१॥
अर्थ-शब्द अनित्य होता है; क्योंकि वह प्रमेय है । जो प्रमेय होता है, वह अनित्य होता है, जैसे घट । यह प्रमेयत्व हेतु, पक्ष शब्द में और सपक्ष घट में रहता हुप्रा विपक्ष आकाश में भी रहता है, इसलिये व्यभिचारी है । परन्तु उसका विपक्ष में रहना निश्चित है इसलिये उसे निश्चितविपक्षवृत्ति कहते हैं ॥३१॥
संस्कृतार्थ—अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वाद् घटवत् । अयं प्रमेयो हेतुः पक्षे शब्दे, सपक्षे घटे वा विद्यमानो ऽ पि विपक्षे आकाशे ऽपि तिष्ठति, पतों नैकान्तिकः प्रोच्यते । विपक्षे च तस्य वृत्तिः निश्चिता, अतो निश्चितविपक्षवृत्तिरुच्यते ॥३१॥
निश्चितविपक्ष वृत्तित्व' की पुष्टि--
आकाशे नित्ये ऽप्यस्य निश्चयात ॥३२॥
अर्थ--नित्य अाकाश (विपक्ष) में भी इस (प्रमेयत्वहेतु) का निश्चिय है, इसलिये प्रमेयत्वहेतु निश्चित निश्चितविपक्षवृत्ति है ॥३०॥
संस्कृतार्थ--विपक्षे-नित्ये आकाशे ऽप्यस्य प्रमेयत्वहेतोः निश्चयादयं निश्चितविपक्षवृत्तिरुच्यते ॥३२॥ - संकितविपक्षवृत्ति का उदाहरण-- शंकिता विणक्षावृत्तिस्तु नास्ति सर्वलो वक्तृत्वात ॥३३॥
अर्थ--सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि पाह बोलने वाला है । परन्तु 'बोलने वाला' यह हेतु रह जाय और सर्वशपना भी रह