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२०. विशुद्ध अध्यात्म नय
५. उपचरित अनुपचरित
सद्भूत व्यवहार नय यहा जीव द्रव्य की मुख्यता से कथन चलता है। उसका परिचय देने के लिये अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय ने उसके विशेष गुण 'ज्ञान' को आधार बनाया है । इस ज्ञान गुण की विशेषता दर्शाना ही उपचरित सद्भूत व्यवहार नय का लक्षण है । ज्ञान नाम जानन स्वभाव का है । जानना किसी ज्ञेय का होता है । ज्ञेय को जाने विना ज्ञान किसको कहे ? 'ज्ञान तो ज्ञान ही है' ऐसा कहने से कोई क्या समझे ? 'जो घट पट आदि को जानता है उसे ज्ञान कहते है' ऐसा बताने पर ही ज्ञान शब्द का अर्थ प्रतिती मे आता है । अर्थात ज्ञान का लक्षण करने के लिये या ज्ञान की विशेपता दर्शाने के लिये आवश्यक ही ज्ञेय का अवलम्बन लेना पडता है । ज्ञेय को जानते हुए भी 'जान' ज्ञान रूप ही है नेय रूप नही, परन्तु ज्ञेय के प्रतिबिम्ब के बिना ज्ञान का कोई अर्थ भी नही है । इस प्रकार यद्यपि ज्ञान व ज्ञेय पृथक पृथक पदार्थ है परन्तु प्रयोजन वग जेय का उपचार ज्ञान मे करके इस में घट या पट रूप ज्ञेयो की उपाधि लगाई जाती है अर्थात ज्ञान सामान्य को 'घट ज्ञान' या 'पट ज्ञान' कहा जाता है। इसी का नाम उपचार है ।
'जेयो को जानने वाला ज्ञान या ज्ञेयाकार रूप से प्रतीति में आने वाला जो यह ज्ञान है, वही जीव द्रव्य का लक्षण है' ऐसा कथन करना उपचरित सद्भ त व्यवहार नय का लक्षण है। इसी लक्षण को पुदगलादि अन्य द्रव्यो पर भी यथा योग्य रीतय लागू किया जा सकता है-जैसे “यह जो स्पर्श, रस, गन्ध, आदि भाव नित्य ज्ञान के अनुभव करने मे आते है वही पुदगल का लक्षण है" ऐसा कहा जा सकता है। इसी लक्षण की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ कुछ उद्धरण देखिये।