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२०. विशुद्ध अध्यात्म नय
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५. उपचरित अनुपचरित
सद्भत व्यवहार नय
पं. ध.। पू. । ५३५-५४० "स्यादादिमो यथान्तर्लीना या शक्तिरस्ति
यस्य सतः । तत्तत्सामान्यतया निरूप्यते चेद्विशेषनिर पेक्षम् । ५३५। इदमत्रोदाहरण जानं जीवोपजीवि जीवगुणः । ज्ञेयालम्बनकाले न तथा नेयोपजीवि स्यात् । ५३६ । घटसदभावे हि यथा घटनिरपेक्ष चिदेव जीवगुणः । अस्ति घटाभावेऽपि च घट निरपेक्षं चिदेव जीवगुणः ।५३७ । उपचरितः सद्भूतो व्यवहार. स्यानयो यथा नाम् । अविरूद्धं हेतुवशात्परतोऽप्युचर्यते यतः स्वगुणः" । ५४० ।
अर्थ- जिस प्रकार जिस पदार्थ की जो अन्तर्लीन शक्ति है,
उस को जाति के सामान्यपने से अर्थात किसी भी विशेषता का आवलम्वन न लेकर उसके द्वारा पदार्थ का जो सामान्य निरूपण करने में आता है वह अनुपरित सद्भूत व्यवहार नय कहलाता है ।५३५ । जैसे कि ज्ञान जीव का जीवोपजीवी अर्थात चेतन गुण है । ज्ञेय को विषय करते हुए भी वह जीवोपजीवी ही रहता है, ज्ञेयोपजीवी नहीं हो जाता ।५३६ । क्योकि जिस प्रकार घट के सद्भाव मे घट की अपेक्षा न करके केवल चैतन्य जान ही जीव का गणहै, इसी प्रकार घट के अभाव मे भी घट की अपेक्षा न करके मात्र ज्ञान ही जीव का गुण है । ५३७ । अर्थात ज्ञान को सदा ज्ञान ही कहते रहना, ज्ञेय का उपचार न करना अनुपचरित सद्भुत व्यवहार नय का विषय है।
परन्तु अविरोध पूर्वक किसी हेतु वश से अपने गुणो मे भी पर सज्ञा वाला उपचरित सद्भूत व्यवहार नंय का विषय है । ५४० ।