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२०. विशुद्ध अध्यात्म नय
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३. व्यवहार नय सामान्य
कहलाने लगा । ६३४ । परन्तु यह बात ठीक नही, क्योकि न तो अकेले गुण की कोई सत्ता है, न अकेले द्रव्य की सत्ता है न सयोग सम्बन्ध वाले इन दोनो की सत्ता है । केवल एक अद्वैत सत् है । इस सत् को चाहे गुण कहो अथवा द्रव्य एक ही बात है क्योकि वे भिन्न नही है । ६३५ ।
इस प्रकार शुद्ध नय सर्वत निर्द्वन्द व निर्वकल्प है । १३४ । परमार्थ नय तो अनिर्वचनीय है इसलिये तीर्थ की स्थिति के लिये भेद ग्राहक व्यवहार नय को किसी समय कार्यकारी माना जाता है । ६४१ | यहा यह तात्पर्य है कि व्यवहार नय का जो कोई भी वाच्य है, वही सम्पूर्ण विकल्पो का अभाव होने पर निश्चय नय का बन जाता है | ६४३ |
भले ही समझने व समझाने के लिए लक्ष्य लक्षण व गुण गुणी आदि `भेद करके कथन करने मे आये परन्तु वस्तु वास्तव मे अभेद व निर्विकल्प ही है, जो वचन के गोचर नही हो सकती । यदि यह नय सामने आकर व्यवहारिक द्वैत का निरास न करे तो उसके द्वारा स्थापित किये गये द्रव्य गुण व पर्याय आदि भेदो की पृथक सत्ता की स्वीकृत्ति को कौन रोक सकता है ? यह तो इस नय का कारण है और कर्म कलक से रहित ज्ञानात्मक निर्विकल्प आत्म तत्व की सिद्धि द्वारा सम्पूर्ण विकल्पो का अभाव करके ज्ञाता दृष्टा भाव मे स्थिति पाना इस नय का प्रयोजन है ।
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जैसा कि पहले नैगमादि नयो के अन्तर्गत वयवहार नय के ३. व्यवहार नय प्रकरण में बताया जा चुका है, व्यवहार का लक्षण सामान्य भेद करना है । विधि पूर्वक द्रव्य मे गुण-गुणी तथा लक्ष्य लक्षण आदि रूप भेद या द्वैत उत्पन्न करना इस नय की लक्षण है । यही लक्षण पहले भी सर्वत्र ग्रहण करने में आया है । यहा इतना विशेष है कि द्रव्य की शुद्ध व अशुद्ध पर्यायों से निरपेक्ष