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२०. विशुध्द अध्यात्म नय
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३. व्यवहार नय सामान्य
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त्रिकाली द्रव्य सामान्य को ही यहा द्रव्य समझा जाता है । और इसी प्रकार व्यज्जन पर्यायों से निरपेक्ष गुण सामान्य के त्रिकाली स्वभाव को ही यहा गुण समझा जाता है । इसी कारण पर्याय पर्यायी भेद को यहां अवकाश नही । गुण सामान्य पर स े द्रव्य सामान्य का परिचय देना ही इसका काम है ।
द्रव्यों मे जीव पुदगलादि भेद करके द्रव्य सामान्य का लक्षण करना अथवा जीव द्रव्य में सारी मुक्त आदि जाति भेद न करके जीव- सामान्य का लक्षण करना अथवा पुदगल द्रव्य मे परमाणु स्कन्ध आदि जाति भेद न करके पुदगल सामान्य का लक्षण करना ही इस नय का व्यापार है । अत उन उन द्रव्यो के सामान्य गुणों को ही यहा लक्षण रूप से ग्रहण करने मे आता है । जैसे 'द्रव्य का लक्षण सत् है' अथवा 'जीव का लक्षण ज्ञान है । अथवा 'पुदगल का लक्षण स्पर्श है' इत्यादि ।
इसी लक्षण की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ अब कुछ उद्धरण देखिये
१. प ध । पू. । ५२२ - ५२३. “ व्यवहारण व्यवहार स्यातिति शब्दार्थतो न परमार्थः । स यथा गुण गुणिनो रिह सदभेदे भेद करण स्यात् ५२२ साधारण गुण इति यदि वाऽसा धारणः सतस्तस्य । भवति विवक्ष्यो हियदा व्यवहारनयास्तदा श्रेयान् । ५२३ ।” व्यवहार सयथा स्यात्सदृव्यं ज्ञानवांच्य जीवो वा । । ५९९ ।”
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अर्थः--विधि पूर्वक भेद करने का नाम व्यवहार है । यह लक्षण शब्दार्थ रूप समझना परमार्थ रूप नही । अर्थात संज्ञा, संख्या, लक्षण प्रयोजन की अपेक्षा ही इस प्रकार का भेद किया जाना सम्भव है, द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव,