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२. निश्चय
तदसत् गुणोस्ति यतो न द्रव्य नोभयं न तद्योगः । केवल मद्वैतसत् भवतु गुणो व तदेव सद्द्रव्यम् । ६३५ | नैवं यतोस्ति भेदोऽनिर्वचनीये नयः स परमार्थं तस्मात्तीर्थं स्थितये श्रेयान् कचित्स स वावदूकोऽपि । ६४१ । इदमत्र समाधान व्यवहारस्य च नयस्य यद्वाच्यम् । सर्वविकल्पाभावेत तदेव निश्चय नयस्य यद्धाच्यम् । ६४३ ।”
२०. विशुद्धात्म नय
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क्रमश त प । ३ १३४.
"एक शुद्ध नय. सर्वोनिर्द्वन्द निर्विकल्पक. । १३४ ।”
अर्थ -- व्यवहार नय प्रतिसेध्य है तथा उसका प्रतिषेधकं निश्चय नय है । अर्थात व्यवहार नय, का निषेध करना ही निश्चय नय का वाच्य है । ५९८ । जैसे 'सत् द्रव्य है' अथवा 'ज्ञानवान जीव है' इस प्रकार का कथन करना वयवहार नय है । तथा 'इतना ही मात्र नही है' इस प्रकार का व्यवहार का प्रतिषेध करने वाला जो कथन है वही नयो का अधिपति निश्चय नय है । ५९९ । जिस प्रकार एक सत् को किस अर्थात गुण पर्यायों आदि वाला बतला कर द्वैत रूप करना व्यवहार नय का लक्षण है उसी प्रकार व्यवहार नय स े विपरीत अर्थात अद्वैत सत् द्वैत न मे करना निश्चय नय का लक्षण है । ६१४ ।
कि
निश्चय स े व्यवहार नय अभूतार्थ है । इसका कारण यह है सूत्र मे द्रव्य को जो गुण वाला कहा है, उसका अर्थ करने से ऐसा प्रतीत होता है, मानों पहले गुण जुदा थे द्रव्य जुदा, पीछे से द्रव्य के साथ गुण का योग हुआ, इसलिये वह गुण वाला