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२०. विशुद्ध अध्यात्म नय
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२. निश्चय नय
व द्रव्य का द्वैत देखा जाता है 'सत् मात्र द्रव्य है , याज्ञा 'न मात्र जीव है' ऐसा कहना इस पद्धति मे ८यवहार समझा जाता है । लक्ष्य लक्षण भेद के बिना भेद ही नही किया जा सकता फिर इस निश्चय नय का लक्षण कैसे करे ? 'द्रव्य जैसा है वैसा ही है' बस ऐसा कहना ही इस नय का लक्षण है । इसी को और अधिक स्पष्ट करना हो तो 'व्यवहार गत विकल्पों का निषेध करना ही इसका लक्षण है' ऐसा समझ लीजिये।
तात्पर्य यह है कि 'ज्ञान जीव का लक्षण है' ऐसा कहना व्यवहार है, तव 'ज्ञान मात्र ही जीव नही है, ऐसा कहना निश्चय है । 'ज्ञान दर्शन चारित्र आदि गुणो का पिण्ड जीव है' ऐसा कहना व्यवहार है, तव 'ज्ञान दर्शन चारित्र ऐसा त्रयात्मक जीव नही है वह तो इन सव भेदो से निरपेक्ष है, ऐसा कहना निश्चय है । अर्थात द्रव्य का परिचय देते समय जो कोई भी विकल्प व्यवहार नय उत्पन्न करे उसका निषेध कर देना मात्र इसका लक्षण किया जा सकता है । भेद ग्रहण के विना विधि आत्मक लक्षण होना असम्भव होने के कारण निषेधात्मक लक्षण किया गया है । इसी की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ कुछ उद्धरण देखिये ।
१. प.घ. | ५६८-६४४. "व्यवहारः प्रतिपेध्यस्तस्य प्रतिषेधकश्च
परमार्थ । व्यवहार प्रतिषेधः स एवं निश्चय नययस्य वाच्यः स्यात् । ५९८, । व्यवहारः स यथा स्यात्सद्रवय ज्ञान वाच्य जीवो वा नेत्येतन्मात्तो भवति
स निश्चयनयो नयाधिपति.। ५९९. लक्षण मेकस्य सतो यथाकथचिद्यथा द्विधाकरणम् । व्यवहारस्य तथा स्यात्तदितरथा निश्चयस्य पुनः । ६१४ । इदमत्र निदानं किल गुण व द्रवयं यदुक्त मिह सूत्रे । अस्ति गुणस्ति द्रवयं तद्योगादिह लब्धामित्यर्थात । ६३४ ।