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२०. विशूध्द अध्यात्म नय
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१ विशुध्द ग्रध्यात्म परिचय
कल्पनाये ज्ञान के पारिणामिक भाव की जाति की नही होने के कारण उन्हे ज्ञान की जाति का कार्य नही कहा जा सकता । ज्ञान भाव से तन्मय ज्ञान का कार्य ज्ञान कहलाता है और कल्पनाओं या विकल्पो से तन्मय ज्ञात का कार्य विकल्प कहलाता है । इस प्रकार एक जान के दो भेद कर दिये गए एक ज्ञान व दूसरा विकल्प |
पहले भेद अर्थात ज्ञान क्रिया से तो मै जाता इस ज्ञेय को जानता हूं, ऐसा भाव बना रहता है, परन्तु कर्ता क्रिया में ज्ञान स्वयं ज्ञाय के साथ तन्मय होकर यह भूल जाता है कि में जानने वाला भी कोई हू । उसको ज्ञेय पदार्थ या उसकी पर्याय ही दिखाई देती है, ज्ञाया- ज्ञेय का भेद नही रहता । यद्यपि ज्ञेय सम्बन्धी विकल्प से तन्मय है, ज्ञेय से नही, परन्तु 'यह विकल्प है और ज्ञेय मुझ से भिन्न है, उसके परिवर्तन पाने से मुझे कुछ हानि लाभ नहीं, ऐसा भी ज्ञान उस समय नही होता । स्व पर का विवेक सर्वथा लुप्त हो जाता है । इसलिये उस ज्ञान की स्व पदार्थ के साथ तन्मय होने के कारण स्वभाव है और कर्ता क्रिया पर पदार्थ के साथ तन्मय होने के कारण परभाव है ।
यही विशुद्ध अध्यात्म का भेद विज्ञान है, जिसको ग्रहण करना अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि मे ही सम्भव है । एक ज्ञान मे ही विवक्षा वश स्व त्र पर का द्वेत उत्पन्न कराया गया है । साधारण अध्यात्म मे. स्वव पर की कल्पना स्थूल थी, पर यहा स्व पर की व्याख्या अत्यन्त सूक्ष्म है । वह द्रव्याथिक का विषय था और यह पर्यायार्थिक ऋजुसूत्र का विपय है, कारण कि ज्ञान क्रिया के साथ तन्मय रहने वाला ज्ञाता व्यक्ति कोई और है, और कर्ता क्रिया से तन्मय रहने वाला कर्ता व्यक्ति कोई और। जो ज्ञाता है वह कर्ता नही और जो क़र्ता है वह ज्ञाता नही । इस विशुद्ध दृष्टि मे स्व पदार्थ का क्या