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________________ १ह व्ययहार नय 1 ६८३ १२. उपचित असद्भूत व्यवहार नय ८. न च । २४१ "देशपतिः देशस्थ : अर्थपतिर्यः तथैव जल्पन् । मम देशो मम द्रव्यं सत्यासत्यमपि उभयार्थम् | २४१ ।" अर्थ - देशपति, देश का निवासी, अर्थपति, तथा मेरा देश, मेरा द्रव्य, इस प्रकार के द्रव्यों का उच्चारण उभयार्थ उपचार है। क्योंकि "देश" कहने से जीव व अजीव सबके स्वामित्व का युगपत ग्रहण हो जाता है और इसी प्रकार अर्थ या द्रव्य इन सामान्य वाची शब्दों से भी ( . प ।१० । पृ ८४.) प्र. सा. 1 ता वृ । परि "उपचरितासद्भूत व्यवहारनयेन काष्ठवसनाद्युपविष्ट देवदत्तवत्समवशरण स्थित वीतराग सर्वज्ञवद्वा विवक्षितैक ग्राम गृहादि स्थितम् ( आत्मा ) 1" अर्थ :-- काष्ठ के आसन आदि पर बैठे हुए देवदत्तवत् या समवशरण मे स्थित वीतराग सर्वज्ञवत् आत्मा को किसी एक विवक्षित ग्राम या घर आदि में स्थित कहना उभयार्थं उपचारित असद्भूत व्यवहार है । 7 यह तो इसके लक्षण व उदहारण हुए, अब कारण व प्रयोजन देखिये । उपचार का उपचार होने के कारण उपचरित है; और भिन्न 'द्रव्यों में एकत्व का उपचार होने के कारण असद्भूत व्यवहार है । इस नय का मुख्य विषय जीव कर्म सयोग हैं जो बाह्य निमित्त कारण से होता है । इस लिये कारण रूप उन वाह्य द्रव्यो को भी जीव का कह दिया जाता है । यह इस नय' का कारण है । क्योकि यह सयोग न होता तो ससार व मोक्ष भी न होता, तब इस नय का कोई विषय भी न होता । 1 { - इस बन्ध का कारण जीव के को त्यागने से ही मोक्ष होता है, पुण्य पाप रूप कार्य है । इन कार्यो ऐसा यह नय बतावा है | अत
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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