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१६ व्यवहार नय
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१३. अनुपचरित
असद्भूत व्यवहार नय वुद्धिमान जनो को इन सब कर्मो से परे, निश्चय नय के विषय भत, एक मात्र अभेद ज्ञाता दृष्टभाव रूप निज चैतन्य तत्व की शरण मे जाना योग्य है । यह इस नय का प्रयोजन है ।
उपचार का उपचार न करके केलव उपचार कथन को असद्भूत १३ अनुपचरित असद्भूत व्यवहार या अनुपचरित व्यवहार कहते है ।
व्यवहार नय या यों कहिये कि सश्लेष सम्बन्ध वाले अनेक पदार्थो में एकत्व की स्थापना करना अनुपचरित असद्भूत है । संश्लेष सम्वन्ध मे बहुत स्थूल उपचार न होने के कारण यह अनुपचार या किचित उपचार है जैसे “जीव शरीर व कर्मो का कर्ता व भोक्ता है" ऐसा कहना । शरीर व कर्मो के अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ जीव के साथ सश्लेष सम्बन्ध को प्राप्त नहीं है, अतः इन दोनो के साथ ही जीव का स्वामित्व व कारक सम्बन्ध दर्शाने वाला यह नय है । इसको केवल असद्भुत व्यवहार भी कहते है । इसी लक्षण की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ कुछ उद्धरण देखिये ।।
१. प्रा. प. । १६ । पृ. १३२ “संश्लेष सहित वस्तु सम्बन्ध विषयोऽ
नुपचरितासद्भूत व्यवहारो यथा जीवस्य शरीरमिति ।"
अर्थ-भिन्न वस्तुओ मे संश्लेष सहित सम्बन्ध के विषय करने
वाला अनुपचरित असद्भूत व्यवहार है जैसे शरीर को जीव का कहना।
(नय चक्र गद्य पृ. २५ ) (अन. घ. । १।१०६ । ११०) (वृद्र स. । १६ । ५३)
१. प्र. सा । ता. वृ. परि. उदाहरणार्थ अनुपचरितासद्भूत
व्यवहारनयेन द्वयणुकादिस्कन्ध संश्लेष सम्बन्ध स्थित पुद्गल परमाणुवत्परमौदारिक शरीरे , वीतराग सर्वज्ञ वद्वा विवाक्षतैकदेहस्थितम् ।”