________________
१६. व्यवहार नय
६७६
१२. उपचरित असद्भुत
व्यवहार नय
इसीलिये इस नय को असद्भूत व्यवहार कहना सार्थक ही है । यह तो इस नय का कारण है । और पर द्रव्यों के संयोग से उत्पन्न होने वाले विभाव भावों का परिचय पाकर इनको दृष्टि से ओझल करके एक अखण्ड स्वभाव की आराधना करना इसका प्रयोजन है।
पर द्रव्यों का सम्बन्ध भी दो प्रकार से हो सकता है-सश्लेष सम्बन्ध व संयोग सम्बन्ध । प्रदेशों से एकमेक सम्बन्ध को सश्लेष सम्बन्ध कहते हैं-जैसे दूध व पानी का सम्बन्ध या जीव व शरीर या कर्मों का सम्बन्ध । प्रदेश भेद वाला सम्बन्ध सयोग सम्बन्ध कहलाता है-जैसे दण्डन्दण्डी सम्बन्ध या शरीर-वस्त्र सम्बन्ध । संश्लेष सम्बन्ध सूक्ष्म है क्योकि अध्यात्म दृष्टि के बिना देखा नही जा सकता और सयोग सम्बन्ध स्थूल है, क्योंकि साधारण दृष्टि से भी देखा जा सकता है।
यह दोनो प्रकार के ही सम्बन्ध रूप उपचार असद्भूत व्यवहार के विषय है, अतः विषय भेद से इस नय के भी दो भेद हो जाते हैस्थूल उपचार ग्राहक उपचरित असद्भूत और सूक्ष्म उपचार ग्राहक अनुपचरित असद्भुत । अब इन दोनो के पृथक-पृथक लक्षणादि करते है । . .
भिन्न द्रव्यो मे उपचार करना तो असद्भूत नय सामान्य का १२. उपचरित असद्भूत विषय है । इस' उपचार मे भी उपचार
व्यवहार नय । करना । अर्थात् पर सयोग' सम्बन्ध वाला स्थूल उपचार करना उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है, जैसे वस्त्र व धन आदि बाह्य पदार्थों का स्वामी या इनका कर्ता भोक्ता जीव को कहना । वस्त्र या धन आदि के साथ यदि कुछ सम्बन्ध है. भी तो शरीर से है, जीव से नही, हाँ शरीर का सम्बन्ध किसी प्रकार जीव से है । वस्त्र का सम्बन्ध शरीर से है और शरीर का