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१६ व्यवहार नय
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११. असद भूत व्यवहार
के कारण प्रयोजनादि निर्मित कर्म ही यद्यपि मूर्त हैं जीव के भाव नही, फिर भी उनके सयोग से उत्पन्न होने के कारण जीव के क्रोधादि भावों को भी सिध्दान्त मे मूर्त कह दिया जाता
है । यहा स्व पर्याय मे अन्य द्रव्य के गुण का आरोप है। २ वृ न च । ११३. "मनोवचन काय इन्द्रियाण्यानपान प्राणा
आयुकच यज्जीवे । तदसद्भूतो भणति हु व्यवहारो लोक मध्ये। ११३।"
अर्थ:--मन, वचन, काय, पाच इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, व आयु
इन दस प्राणो से जो जीता है वह जीव है, ऐसा असद्भुत व्यवहार नय से लोक में कहा जाता है । यहा पुद्गल द्रव्य मे जीव के जीवत्व गुण का आरोप किया है ।
३. प्रा.पृ। १५॥ प.. १०८ "असद्भूतव्यवहारेण कर्मनोकर्मणोरपि
चेतन स्वभावः । .... । ....जीवस्याप्यसद्भुतव्यवहारेणाचेतन स्वभावः ।.... जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेण मूर्तस्वभाव. । .... । असद्भूतव्यवहारेणोपचरितस्वभावः।"
अर्थ --असद्भूत व्यवहार नय से कर्म व नोकर्म भी चेतन
स्वभावी है । जीव का भी असद्भुत व्यवहार नय से अचेतन मूर्त व उपरित स्वभाव है । यहा पुद्गल मे जीव के गुण का और जीव मे पुद्रगल के गुण का आरोप किया गया है ।
.. इसी प्रकार सर्वत्र जान लेना। एक मे दूसरे का आरोप ११ असद्भूत व्यवहार के करना ही असद्भूत कहलाता है। इसी प्रकार
कारण प्रयोजनादि का असत्य आरोप करने के कारण यह असद्भूत है, और भिन्न द्रव्यो मे सम्बन्ध जोड़ने के कारण- व्यवहार है।