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________________ १६. व्यवहार नय ६७४६ अशुद्ध सद्भूत व्यवहार नय विषयः उपचरितसद्भूत व्यवहारो यथा जीवस्य मतिज्ञाना दयोगुणाः ।” अर्थ --सोपधि गुण व गुणी का भेद विषयक उपचरित सद्भूत व्यवहार है, जैसे कि जीव के मति ज्ञानादि गुण है' ऐसा कहना। ४. न चक्र गद्य । प २१ "अशुद्ध द्रव्ये गुण गुणी विभागैक लक्षणं कथयन् अशुद्ध सद्भूत व्यवहारोपनयः ।" अर्थ --अशुद्ध द्रव्य मे गुण गुणी का विभाग रूप एक लक्षण कहना अशुद्ध सद्भूत व्यवहारवाला उपनय है । ५ प्र. सा । वृ. ता । परि, "अशुद्ध सद्भूत व्यवहारयेन अशुद्ध स्पर्शरसगन्धवर्णाधार भूतद्वयणुकादि स्कन्धवन्मतिज्ञानादि विभाव गुणा नामाधार भूत (आत्मा)।" अर्थ:-अशुद्ध सद्भुत व्यवहार नय से अशुद्ध स्पर्श रस गन्ध तथा वर्ण के आधार भूत द्वयणुकादि स्कन्ध वत् मति ज्ञानादि विभाव गुणो का आधार भूत आत्मा है । ६. नि सा । ता वृ ६ "अशुद्ध सद्भूत व्यवहारेण मतिज्ञानादि विभाब गुणानामाधारभूतत्वादशुद्ध जीव. ।" अर्थ -अशुद्ध सद्भूत व्यवहार से मति ज्ञानादि विभाव गुणो का आथार भूत होने के कारण अशुद्ध जीव है । यह तो इन नय के लक्षण व उदाहारण हुए अब कारण व प्रयोजन देखिये । क्योकि अशुद्ध द्रव्य को विषय करता है इसलिये
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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