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१९. व्यवहार नय
१९. व्यवहार नय
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३. व्यवहार का लक्षण
३. व्यवहार नय
सामान्य का लक्षण दाता हाता चेति सो शुद्ध द्रव्य निरुपणात्मको व्यवहार नयः।"
(अर्थ-जो कि पुद्रगल की पर्याय रूप कर्म है वह ही पुण्य
व पाप है । उन पुग्द्रल पर्यायों का कर्ता, उपदाता या हाता अर्थात घातक यह आत्मा है, ऐसा अशुद्ध द्रव्य
का निरुपण करने वाला व्यवहार नय है। ७. नि. सा. । ता. वृ. । ६ "व्यवहारेण द्रव्य प्राण धारणाजीवः । (अर्थः-व्यवहार नय से द्रव्य प्राणो को धारण करने के
कारण जीव है।)
८. प.का. ता. वृ.।२७।६० द्रव्य प्राण धारण करने से जीव है। का भावार्थ भाव कर्मों के निमित्त भूत पुद्रगल कर्मों को करने
से की है । शुभाशुभ कर्मो के फलस्वरूप इष्टानिष्ट विषयों को भोगने से भोक्ता है । देह मात्र है । कर्मो के साथ एकमेक रहने के कारण मूर्त है । चैतन्य परिणामों के अनुरूप पुद्रगल परिणाम रूप जो कर्म उनसे सयुक्त होने के कारण कर्म सयुक्त है। ऐसा जीव का स्वरूप व्यवहार नय से है।
९. मो. मा.प्र. । ७ । १७ । ३ । ३६६ । ८ 'व्यवहार नय
स्वद्रव्य परद्रव्य को वा तिनके भावनिको, वा कारण कार्यादिककौं काह को काह में मिलाकर निरूपण करै है।"
१०. स. सा. । मू.। ५६. "तथा जीवे कर्मणां नो कर्मणां चदृष्ट्वा
वर्ण । जीवस्यैष वर्णों जिनैर्व्यवहारत उक्तः । ५९॥"