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१८. निश्चय नय
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७.
शुद्ध निश्चय नय के कारण व प्रयोजन
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इसके अतिरिक्त पारमार्थिक प्रयोजन तो वही है जो कि निश्चय सामान्य में बताया गया है । व्यवहार पर से हट कर निश्चय पर लक्ष्य को ले जाने से तो व्यवहारिक विकल्प मिट कर एकत्व मे स्थिति होती है । और इस नय को लक्ष्य में लेने से वह एकत्व का विकल्प भी मिट कर निज अखण्ड चैतन्य स्वभाव में स्थिति होती है । फलस्वरूप परमानन्द का स्वाद जीवन को उस समय के लिये तथा परम्परा रूप से सदा के लिये शान्त वना देता है ।
मुक्त
यह तो परम शुद्ध निश्चय नय का प्रयोजन है । केवल शुद्ध निश्चय नय का भी यही प्रयोजन है । सिद्ध प्रभु ही वास्तव मे जीव है अत मै भी तो ऐसा ही हू, क्योकि सर्व जीव सिद्ध तुल्य है यदि मैं सिद्ध तुल्य हू तो यह राग आदि के विकल्प मुझे किस लिये आते है ? भो चेतन ! तू बाहर की महिमा क्या देखता है, तू भगवान की
महिमा भी क्यों देखता है, अपनी ही महिमा को देख
। तू वर्तमान मे
। अत
पूर्ण प्रभु है, अन्य सर्व प्राणी भी पूर्ण प्रभु है कि समस्त रागादिक या अभिलाषाओं से रसास्वाद में निमग्न रहा कर । परन्तु यदि उत्पत्ति वश लोकिक व्यापारो में ही जाना पडे, तो उनमे रस न ले उदासीनता पूर्वक ही सर्व लौकिक कार्य कर । सम्पर्क म आने वाले सर्व छोटे बडे व्यक्तियो मे प्रभुत्व के दर्शन करता हुआ सब के साथ प्रेम का व्यवहार कर ।
कर्तव्य तो यह है
होकर निज अन्तर कदाचित राग की
इन प्रयोजनो की सिद्धि जीवन मे न हो और आध्यात्म नय वाले शुद्ध नय की चर्चा मात्र करे तो शुद्ध नय का यथार्थ ग्रहण कहा नही जा सकता । उस प्रकार की अपनी दृष्टि बन जाने को नय का ग्रहण कहते है । ऐसी दृष्टि वन जाने पर स्वाभाविक रूप से ही लौकिक व आलौकिक दोनों दिशाओ में उपरोक्त प्रयोजनो की सिद्धि हो जाती है। कहा भी है