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१८. निश्चय नय
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७. शुद्ध निश्चय नय के
कारण व प्रयोजन
रहा है । लक्ष्य के अतिरिक्त अन्य भावो का ग्रहण नय की एकान्त दृष्टि मे सम्भव नहीं । अत द्रव्य सामान्य को उस एक लक्षित भाव रूप ही बता देना न्याय
युक्त है। क्योकि गुण व गुणी मे अभेद करके केवल गुणी अर्थात अभेद ७ शुद्ध निश्चय नय के द्रव्य को विपय करता है इसलिये तो निश्चय ___ कारण व प्रयोजन है। और त्रिकाली शुद्ध पारिणामिक भाव के साथ या क्षणिक शुद्ध क्षायिक भाव के साथ अभेद दर्शाता है इसलिये शुद्ध है। अत "शुद्ध निश्चय नय” इसका यह नाम सार्थक है । यह तो इस नय का कारण है । अव प्रयोजन देखिये ।
____ लोक के सर्व प्राणी ही जब शुद्ध ज्ञान व चेतना या सत् स्वभावी है तो फिर “ यह छोटा यह वडा, यह राजा यह रंक , यह भगवान यह भक्त, यह मनुष्य ओर यह चीटी, यह अमुक देश जाति का ओर यह अमुक देश जाति का" ऐसा द्वैत करना कैसे सम्भव है ? अत भो चेतन । तू सव ही प्राणियों म एक सामान्य प्रभु के दर्शन कर । मैतू व मेरा-तेरा के भावो को दवाने का प्रयत्न कर। सव ही ब्रह्म स्वरूप है , ऐसा जानकर हृदय मे साम्यता को धारण कर । ऐसे भाव चित्त मे जागृत कराना तथा सर्व सत्व मैत्री का पाठ पढ़ाना तो परम शुद्ध निश्चय नय का सामान्य प्रयोजन है। लौकिक व्यवहार मे यह दृष्टि बने रहने के कारण , इस नय के आधार पर साधना करने वाले का लौकिक जीवन सदा प्रेम मय वना रहता है । स्वच्छन्द होकर हिसा आदि मे प्रवृत्ति करना तथा कह देना कि 'सब प्रभु है , कौन किसे मारता है ' इत्यादि तो इस नय की साधना नहीं है । जब तक सब की प्रसन्नता मे अपनी प्रसन्नता तथा सब की पीड़ा मे अपनी पीडा दीखती नही तब तक सर्व सत्व मैत्री या एकत्व की बात कहना केवल शाब्दिक जमा खर्च है । इस नय का यह प्रयोजन नहीं है।