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१८. निश्चय नय
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३ निश्चय नय सामान्य
का लक्षण अर्थः-- निश्चय नय से परिणमन करते हुए श द्ध अशुद्ध भावों
का कर्तृत्व ही जीव में जानना चाहिये और हस्तादि व्यापाररूप परिणमनो का कर्तापना नही समझना चाहिये ।
७ वृ. स. ।टी।१६। ५७ "स्वकीय शुद्ध प्रदेश'षु....निश्चय
नयेन सिद्धास्तिष्ठन्ति ।" .
अर्थ-निश्चय नय से अपने शुद्ध प्रदेशों मे मे ही सिद्ध भगवान
तिष्ठते है, उर्ध्व लोक मे नही ।)
८ रा वा. 1१।७।८।३८ "योऽसौ जीवात्मा पारिणामिक स्त___साधनो जीवो निश्चयनयेन ।" अर्थ- निश्चय नय से जीव अपने अनादि परिणामिक भावों
से ही स्वरूपलाभ करता है। भावार्थ-निश्चय नय के इन लक्षणो मे सामान्य रूप से जीव के अपने भावो के साथ उसका कर्ता भोक्ता आदि पना दर्शाया गया है, शरीर व शरीर की क्रियाओं के साथ नही । इसलिये स्वाश्रित भावो को अर्थात स्वाश्रित भावों के साथ तन्मय द्रव्य को निश्चय नय का वाच्य बताया गया । वे स्वाश्रित परिणाम चार प्रकार के हो सकते है-१ सम्पूर्ण शुद्धाशुद्ध की अपेक्षाओं से रहित पारिणामिक भाव २. त्रिकाल सम्पूर्ण गुण ३. क्षायिक भाव रूप शुद्ध पर्याय तथा ४. औदयिक व क्षयोपशमिक भाव रूप अशुद्ध पर्याये यहा निश्चय सामान्य का लक्षण किया जा रहा है, अतः अपने सर्व भावो को ग्रहण कर लेता है, भले ही वह भाव त्रिकाली हो कि क्षायिक शुद्ध हो कि अशुद्ध । ___इस के भेद प्रभेद करने के पश्चात अवश्य इन चारो प्रकार के निज भावों में से एक एक भाव एक एक नय का विषय बन जायेगा । परम