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१८. निश्चय नय
६०५ ३. निश्चय नय सामान्य
का लक्षण १. प्र. सा. न. प्र. १२९७ "रागपरिणामस्यैवात्मा कर्ता तस्यैवो
पदाताहाता चेत्येप शुद्ध द्रव्य निरूपणात्मको निश्चय नय.।"
(अर्थ-- राग परिणाम का ही आत्मा कर्ता है, उसका हो उप
दाता या हाता है अर्थात उस का ही देने वाला या नाश करने वाला है । ऐसा श द्ध (केवल) द्रव्य निरूपणात्मक निश्चय नय है । निश्चय नय से घट पट का कर्ता हर्ता नही है ।)
२. नि. सा.। ता वृ. ६ “निश्चयेन भाव प्राणधारणत्वाज्जीव.।"
(अर्थ-- भले हो व्यवहार से चार प्राणो करके जीव हो पर
निश्चय से तो चैतन्य भाव प्राण को धारण करने से ही वह जीव कहलाता है ।
३. प. का.ता. वृ. ।२७।६० "निश्चयेन केवल ज्ञान दर्शन रूप
शुद्धोपयोगेन. . . युक्तत्वादुपयोग-विशेषतो भवति ।"
(अर्थ-निश्चय से केवल ज्ञान व केवलदर्शन रूप शुद्धोपयोग सहित
होने के कारण जीव का लक्षण उपयोग किया जाता है। तथा इसी प्रकार आगे भी) 'भाव प्राण धारण करने के कारण जीव है, चित् स्वरूप होने के कारण चेतयिता है, अपृथाभूत उपयोग से उपलक्षित होने के कारण उपयोग गुण वाला है, भाव कर्मो अर्थात राग द्वेषादि भावों के आश्रव आदिकों मे स्वय ही ईश्वरपने को प्राप्त वह प्रभु है, पौद्गलिक कर्मों के निमित्त भूत राग द्वेषादि आत्म परिणामों का कर्ता होने के कारण कर्ता है, शुभाशु भ कर्म निमित्तक सुखः दुःखों को भोगने के कारण भोक्ता है,