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१८. निश्चय नय
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वय नय सामान्य
का लक्षण इन दोनों लक्षणों मे महान अन्तर है। पहले वाक्य मे तो ज्ञान गुण जीव का लक्षण है 'जीव का' ऐसा कहना द्वैत रूप है क्योकि 'का' शब्द का प्रयोग दो पृथक पृथक वस्तुओं मे हूआ करता है जैसे राम की घड़ी । परन्तु दूसरे वाक्य मे ज्ञान ही जीव ऐसा कहने पर "ज्ञान है सो जीव है, जीव है सो ज्ञान है दोनों तन्मय है " ऐसा अद्वैत ग्रहण होता है । अत. पहिला वाक्य व्यवहार नय का है और दूसरा निश्चय नय का है । स्वाश्रित भावो से तन्मय पाने का यही भावार्थ है। स्वाश्रित भावों के अन्तर्गत कर्ता कर्म व भोक्ता भोग्य आदि सम्पूर्ण सम्बन्धो का भी अभेद ग्रहण हो जाता है। जैसे जीव अपने ही शुद्ध या अशुद्ध भावो का कर्ता या भोक्ता है' ऐसा कहना निश्चय है ।
जहा गुण व गुणी मे अभेद दर्शा कर बात कही जा रही हो वहा तो निश्चय नय का व्यापार समझना और जहां गुण व गुणी मे भेद दर्शाकर बात कही जा रही हो वहा सद्भत व्यवहार का व्यापार समझना। इतना ही सद्भूत व्यवहार व निश्चय मे अन्तर है । यह बात ध्यान मे न रही तो सद्भूत का लक्षण आने पर यह संशय हुए बिना नही रह सकता कि सद्भूत व्यवहार तो निश्चय नयवत् ही है। वह निश्चय नय के निकट अवश्य है । क्योंकि वस्तु की अपने गुण पर्यायो को ही ग्रहण करता है, परन्तु निश्चय नय नहीं है क्योकि वस्तु से उनको अभेद करके उनके साथ तन्मय रहने वाली वस्तु को प्रमुखतः ग्रहण नहीं करता, उन भेदो वाला ही प्रमुखत ग्रहण करता है।
इसप्रकार निश्चय नय के तीन लक्षण किये गये:१. एवभूत या सत्यार्थ ग्रहण निश्चय है । २. गुण गुणी मे
अ निश्चय नय है। ३. स्वाश्रित
वस्तु का ग्रहण निश्चय नय है