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१८. निश्चय नय
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३. निश्चय नय सामान्य
का लक्षण
भूत नही है या गुण पर्यायों से पृथक रहने वाली वस्तु वस्तुभूत नही है । निःसंशय यही यथार्थ बात है । अत. अभेद वस्तु का ग्रहण निरचय है । निश्चय का यह लक्षण द्रव्यार्थिक सामान्य के लक्षण से मिलता है अन्तर केवल इतना है वहा त्रिकाली द्रव्य सामान्य का परिचय देना मुख्य था पर यहा त्रिकाली द्रव्य के अतिरिक्त उसकी द्रव्य पर्यायो को भी कदाचित द्रव्य के स्थान पर ग्रहण कर लिया जाता है । तात्पर्य यह कि गुण - गुणी मे अभेद अथवा पर्यायो या विशेपो से तन्मय अखण्डित द्रव्य का अद्वैत भाव दर्शाना ही इस नय का वाच्य है । जैसे जीव को ज्ञानात्मक कहना अथवा ज्ञान ही जीव हैं और जीव ही ज्ञान है ऐसा कहना । जिस वाक्य मे द्वैत का किञ्चित भी प्रतिभास न हो गुण व पर्याय को द्रव्य रूप या द्रव्य व पर्याय को गुण रूप वताया जा रहा हो उस वाक्य को निश्चय नय का विषय
समझना ।
३. इसी लक्षण को अन्य प्रकार से भी कहा जा सकता है । क्योकि वस्तु के साथ तन्मय रहने वाले उसके अपने गुण या पर्याय भले शुद्ध हो कि अशुद्ध वस्तु के आश्रय पर रहते है पर सयोग के आश्रय पर नही । इसलिये निजाश्रित भावो के साथ ही द्रव्य सामान्य का अभेद आधार आधेय या कर्ता कर्मादि सम्बन्ध ग्रहण करना निश्चय नय का लक्षण है ।
"केवल ज्ञान जीव का एक शुद्ध भाव है या केवल ज्ञान जीव का एक शुद्ध ज्ञान है" ऐसा कहना निश्चय नय का वाच्य नही है, क्योंकि यहा जीव का ज्ञान ऐसा भेद कथन है सो तो व्यवहार नय है । निश्चय नय तो अभेद ग्राही है । अर्थात गुण व गुणी मे अभेद दर्शाता है । अत केवल ज्ञान से तन्मय, या केवल ज्ञान रूप से परिणत या केवल ज्ञान रूप जीव है अथवा केवल ज्ञान स्वयं जीव ही है ऐसा कहना निश्चय नय है केवल ज्ञान जीव का गुण और केवल ज्ञान ही जीव है ।